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वंदन-पूजन-सत्कार-सन्मान इत्यादि सम्यग्दर्शन के लाभ के लिए हैं । इसलिए लिखा : बोधिलाभ ।
बोधिलाभ भी क्यों ? मोक्ष के लिए । इसलिए उसके बाद कहा : 'निरुवसग्ग वत्तियाए ।' निरुपसर्ग का अर्थ मोक्ष । मोक्षमें कोई उपसर्ग नहीं हैं । इसलिए वह निरुपसर्ग कहा जाता हैं ।
प्रश्न : साधु-श्रावक को बोधिलाभ मिला हुआ ही हैं । फिर मांगने की क्या जरूरत ? बोधिलाभ हैं तो मोक्ष भी मिलेगा ही। फिर उसकी प्रार्थना क्यों ? मांगने की जरूरत क्या ?
उत्तर : क्लिष्ट कर्मों के उदय से मिली हुई बोधि चली भी जाय । इसलिए ही यहाँ उसके लिए प्रार्थना की गई हैं ।
और हमारा सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक भाव का हैं । इसलिए इसे बहुत ही संभालना पड़ता हैं । आया हुआ सम्यग्दर्शन चला न जाय । हो तो विशुद्ध बने, इसलिए यहा ऐसी याचना की गई
इस कारण से ही भद्रबाहुस्वामी जैसोंने याचना की होगी न ? ___'ता देव दिज्ज बोहि, भवे भवे पास जिणचंद ।'
बोधिलाभ मिलने के बाद ही मोक्ष का लाभ मिलता हैं । इसलिए ही बोधिलाभ के बाद 'निरुपसर्ग' रखा हैं ।
बोधिलाभ मिला तो केवलज्ञान और मोक्ष मिलेगा ही ।
* यह कायोत्सर्ग भले आप करते रहो, परंतु आपकी श्रद्धा का या मेधा का ठिकाना न हो तो उसका कोई मतलब नहीं हैं। इसलिए ही यहाँ लिखा : आपकी श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा और अनुप्रेक्षा इत्यादि बढता हुआ होना चाहिए ।
* श्रद्धा का अर्थ यहाँ प्रसन्नता किया हैं । मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से पैदा होती प्रसन्नता ही श्रद्धा हैं ।
भैंस के दहीं से नींद ज्यादा आती हैं । द्रव्य भी इस तरह असर करता हैं । उस तरह मूर्ति का उच्च द्रव्य हमारे अंदर प्रसन्नता क्यों न बढाये ?
भगवान की मूर्ति के शांतरस के पुद्गल हमारे सम्यक्त्व मोहनीय के पुद्गलोंमें निमित्त बने । इसलिए ही हमें प्रशम गुण का लाभ मिला । (३१० 00mmom a commonsoons कहे कलापूर्णसूरि - ४)