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(२५) अप्पsिहयवरनाणदंसणधराणं ।
भगवान के पास अप्रतिहत दर्शन ज्ञान न हो तो इतने विशाल फलक पर उपकार नहीं हो सकता । सर्वज्ञता के बिना सामने के आशय-भूमिका इत्यादि जान नहीं सकेंगे । इसके बिना पूर्णरूप से उपकार हो नहीं सकता ।
कुछ ऐसे जिज्ञासु होते हैं, जो आते हैं जिज्ञासु का ढोंग करके, परंतु सचमुच तो यह बताने ही आते हैं : हम भी साधक हैं । हम साधना करते हैं । हम भी जानते हैं ।
पू.पं. भद्रंकर वि.म. के पास ऐसे भी बहुत साधक आते थे । परंतु पू. पं. भद्रंकर वि.म. अपने स्वभाव के अनुसार उनका सब सुन लेते थे । पहले सामनेवाले को संपूर्ण खाली करने के बाद ही स्वयं योग्य लगे वह बोलते थे ।
राता महावीर तीर्थमें उपधान माल के समय (वि.सं. २०३२) एक मिनिस्टर सभामें थोड़ा विपरीत बोले थे । मुझे उसी समय प्रतिवाद करने का मन हुआ, किंतु वडीलों की उपस्थितिमें तो कुछ बोल नहीं सकते । फिर मैंने पू. पं. भद्रंकर वि.म. को पूछा : हमारी तरफ से क्यों कुछ जवाब नहीं ?
'उसके विचार जो थे वे उसने बताये । उनको स्वीकार करने के लिए हम कोई बंधे हुये नहीं हैं । उनकी बात समझे, ऐसे सभामें थे ही कितने ? अब अगर विरोध करें तो उनकी बात मजबूत बने । पहले शायद दो जन जानते होंगे । विरोध करें तो सभी जानने लग जाये । हम ही विरोध द्वारा उसकी बात को पुष्ट क्यों बनायें ?' पू. पं. भद्रंकर वि.म. ने मुझे यह जवाब दिया था ।
आज भी यह जवाब मुझे बराबर याद हैं । उनकी यह नीति मैं भी अपनाता हूं ।
* अप्रतिहत वर ज्ञान और दर्शन के धारक भगवान हैं । सभी लब्धियां साकार (ज्ञान) उपयोगमें ही होती हैं । वह बताने के लिए यहाँ प्रथम ज्ञान रखा हैं ।
(२६) वियट्टछउमाणं ।
इस विशेषण से आजीवक (गोशाले का मत) मत का निरसन हुआ है । 'धर्म-तीर्थ का नाश होता हो तब भगवान अवतार धारण
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कहे कलापूर्णसूरि - ४