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था । फिर भी उन सब विद्वानों को उन्होंने एक शृंखलामें बांध लिया था ।
पू. प्रेमसूरिजी की गांधीजी के साथ इस अपेक्षा से तुलना कर सकते हैं । इन्होंने जहाँ-जहाँ शक्तियां देखी उन सबको खींच लिये । भिन्न-भिन्न शक्तिओं को धारण करनेवाले कितने महात्माओं को उन्होंने तैयार किये ? सचमुच ही वे उत्कृष्ट शिल्पी थे। उनके अनेक शिल्पोंमें से एक नमूनेदार शिल्प है : पू. भद्रगुप्तसूरिजी ।
पू. प्रेमसूरिजी एक बात के खास आग्रही थे : जीवन निर्मल ही होना चाहिए । जीवन की चद्दरमें कोई दाग लग जाय, वह वे चलाते नहीं थे । ।
इस लिए ही इनके समुदायमें विशुद्ध संयमी महात्माओं की श्रेणि तैयार हो सकी हैं ।
__ पू. भद्रगुप्तविजयजी को आज आप भावांजलि देने के लिए एकत्रित हुए हैं । तो इस निमित्त क्या करेंगे? उनकी पुस्तकें अवश्य पढें । अगर सभी पुस्तकें न पढ सको तो उनकी अंतिम बिमारी के समय लिखी हुई सुलसा, लय-विलय, शोध-प्रतिशोध इत्यादि पुस्तकें तो खास पढें । वह उनका उत्कृष्ट सर्जन है ।
* दलपत सी. शाह (अध्यापक):
पूज्यश्री के साथ मेरा बहुत बार रहना हुआ हैं । खास करके शिबिर-संचालक के रूपमें रहा हूं। बालकों पर किस तरह अनुशासन करना ? वह मैं उनसे सीखा हूं। उनके पास टीचिंग-पावर था । विद्यार्थीओं को किस तरह पढाना ? वह कला मैं उनसे सीखा
वे कितने निःस्पृह थे ? वह भी जानने जैसा हैं । मृत्यु से पहले उन्होंने कहा था : आज ऐसा रिवाज हो गया हैं, जिसकी ज्यादा ऊंची बोली बोली जाय वह महान । मेरे पीछे ऐसी कोई बोली न बोलें । मेरे शव को कोई विशिष्ट स्थान पर नहीं, लेकिन सामान्य स्थान पर ही दहन करें । मेरे पीछे कोई स्मारक, कोई मूर्ति या मंदिर इत्यादि न बनायें ।
ऐसी निःस्पृहता बहुत कम देखने मिलती हैं !
[२६८ 00mmmmmomoooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)