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से देने के लिये तैयार ही थे, परंतु उपादान तैयार नहीं था, इसलिए ही कल्याण नहीं हुआ । इसलिए पहले उपादान तैयार करो । भगवान को साइड पर रखो ।' यह बात निश्चय-नय की हैं, जो यहाँ नहीं कर सकते । इस प्रकार सोचें तो भक्तिमार्गमें कभी गति हो नहीं सकती । भगवान ही सब देनेवाले हैं, ऐसी दृढ प्रतीति ही भक्त को भक्तिमें गति कराती हैं ।
* सिंह की गर्जना से दूसरे पशु भाग जाते हैं । उसी तरह भगवान का नाम लेते ही सब पाप भाग जाते हैं ।
'तुं मुज हृदयगिरिमां वसे, सिंह जो परम निरीह रे; कुमत मातंगना जूथथी, तो किसी मुज प्रभु बीह रे ।'
हे प्रभु ! मेरे हृदय की गुफामें पाप के पशु भरे हुए हैं। हे दयालु ! आप सिंह बनकर आओ, जिससे सब भाग जाये ।
* मरुदेवी माता को भले अंतर्मुहूर्तमें सम्यक्त्व से लेकर केवलज्ञान और मोक्ष तक का सब मिल गया, किंतु इसके पहले भी अपुनबंधक अवस्था थी ही, ऐसा मानना ही पड़ेगा । भूमिका के बिना भवन का निर्माण नहीं हो सकता ।
किसी भी रूप से आप भगवान के संपर्क में आओ, भगवान कल्याण करेंगे ही । मरुदेवाने भगवान के साथ पुत्र का संबंध बांधा था । भगवान के साथ कोई संबंध बांधे और कल्याण न हो ? अरे जो पुष्प भी भगवान की मूर्ति को चढता हैं वह भव्यता की प्रतिष्ठा प्राप्त करता हैं । अभव्य जीवोंवाले पुष्पों को भगवान के उपर चढने का भाग्य नहीं मिलता ।
अनुमोदना जैसा तत्त्व भी भगवान की कृपा के बिना नहीं मिलता । 'होउ मे एसा अणुमोअणा अरिहंताइसामत्थओ ।।
अचिंत्तसत्तिजुत्ता हि ते भगवंतो ।'
- पंचसूत्र
'अरिहंत आदि के प्रभाव से मेरी यह अनुमोदना सफल बनो ।' क्योंकि भगवान अचिंत्य शक्तियुक्त हैं ।
* व्यवहारनय कहता हैं : गुरु और भगवान ही संपूर्ण तारणहार हैं । इसके बिना भक्ति नहीं जगती ।
सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय या साधुमें भी जो शक्ति प्रकट हुई हैं, अरिहंत भगवान के ही प्रभाव से प्रकट हुई हैं । (२३८ wwwwwwwwwwwwwwww00 कहे कलापूर्णसूरि - ४)