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डोली में विहार
६-११-२०००, सोमवार कार्तिक शुक्ला - १०
* धर्म जब से मिला हैं तब से जीवनमें परिवर्तन आया, यह हमारा स्व-अनुभव हैं । भले यह बाह्य परिवर्तन होगा, परंतु तो भी इसका महत्त्व कम नहीं हैं । आंतरिक परिवर्तन भी धीरेधीरे आयेगा, अगर इसका लक्ष होगा ।
अन्य दर्शनीयों के जीवनमें भी धर्म के प्रवेश से कैसा परिवर्तन दिखता हैं ? जैनेतर मीरा, नरसिंह, रामकृष्ण परमहंस इत्यादि प्रभुभक्तों के जीवनमें जो मस्ती थी उसका इनकार कैसे हो सकता हैं ?
इतनी ऊंची भूमिका पर आने के बाद भी यदि अंतरंग परिवर्तन न आये तो हमारे उद्यम की खामी समझें, धर्म की नहीं।
माँ बालक के लिए शिरा बनाकर देती हैं, उसी तरह पूर्वाचार्योंने हमारे लिए ये शास्त्र बनाकर दिये हैं, संस्कृतमें भी समझमें न आये तो गुजराती कृतियां रची हैं ।
३० वर्ष की उम्रमें दीक्षा लेने के बाद भी संस्कृत का अभ्यास करने का मन इसलिए हुआ कि अनुवाद चाहे जितना अच्छा हो तो भी मूल कृति की तुलनामें नहीं आ सकता । अनुवाद यानि बासी माल ! बासी माल नहीं ही चाहिए - ऐसे संकल्पने ही (कहे कलापूर्णसूरि - ४00000000000006 २५९)