Book Title: Kahe Kalapurnasuri Part 04 Hindi
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Jain Tirth

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Page 288
________________ सब आचार्य भगवंत अभी अहमदाबादमें मिलेंगे । वहाँ चर्चा होगी । वि.सं. २०२७में उदयपुरमें मेरा चातुर्मास था । विश्व हिन्दु परिषदमें मुझे आमंत्रण मिला । मैं गया । सबसे पहले प्रवचन दिया । 'वसुदेव हिन्दी में शब्द आता हैं । इस लोक से परलोकमें गमन करे वह हिन्दु ! . १२०० वर्ष पहले जिन्होंने (जिस की गद्दी उदयपुरमें हैं ।) गजेनकपुरमें आकर राज्य की स्थापना की, उस सीसोदीया वंश के कुलगुरु तपागच्छीय आचार्य भगवंत ही रहे हैं । जैन और अजैन, दोनोंमें मुख्य अग्रगण्य मेवाड़ के महाराणा थे । वे पहले पगलिया श्री पूज्य के वहाँ करते । राणा प्रताप के हीरविजयसूरिजी के उपर के उपालंभ के पत्रमें भी मिलता हैं : हमको छोड़कर आप अकबर के पास क्यों जाते हैं ? मेवाड़ के राज्यमें जब भी पता चले तब पहले केसरीयाजी का मंदिर बनता । ऐसी परंपरा थी । राजस्थान के गांवोंमें में आज भी जैन-अजैन मंदिरों की एक ही दिवार हैं । सिरोही के महाराजा इत्यादि के कुलगुरु जैनाचार्य थे । जैन पौषधशालामें ही महाराजा के पुत्रों का पठन-पाठन होता था । बंगालमें १० हजार पाठशालाएं थी । लोर्ड मेकोल के बाद सब टूटा । विद्या-वाणिज्य महाजन के हाथमें ही था । महादेवहनुमान के मंदिर भी महाजन सम्हालते । इस अविभक्त - परंपरा को तोड़ने के षड्यंत्र रचे गये हैं । सनातन धर्म का कोई नाश कर नहीं सकता, पूज्य आचार्य भगवंत जैसे थोड़े भी उपासक होंगे । पोप को स्वयं के पश्चिममें ही अनुयायी नहीं मिलते । उसकी जड़ टूट रही हैं । अनुयायीयों को ढूंढने के लिए उन्हें यहाँ तक आना पड़ता हैं । इसा-मुसा खतम हो जायेंगे, लेकिन गिरते वटवृक्ष के नीचे हम न दब जायें, उसका ध्यान रखना पड़ेगा । १-२ वर्षमें श्रमण संघ ऐसा एक बने कि जिसके प्रभाव से हिन्दुस्तान पर संस्कृति की लहर छा जाये ।। [२५८60oooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)

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