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वि.सं. २०५०, मद्रास
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२-११-२०००, गुरुवार
कार्तिक शुक्ला - ६
* परोपकार की पराकाष्ठा होने के कारण ही भगवान को वैसी शक्ति मिलती हैं । 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' यह सबको याद हैं ही । सिर्फ शक्ति ही नहीं, कार्य भी वैसे ही होते हैं ।
खराब भावनावाले को नहीं, किंतु शुभ भावनावाले को प्रकृति मदद करती हैं।
खराब भावनावाले को प्रकृति मदद करे तो जगत नर्कागार बन जाये ।
ऐसे विशिष्ट प्रकार के पुण्य का संचय भगवानने कैसे किया ? ऐसे प्रश्न का जवाब उनके परोपकार की पराकाष्ठामें रहा हुआ हैं ।
व्यक्तिगत भगवान का अनुग्रह भले उनके तीर्थ तक चले, लेकिन आर्हन्त्य तो सर्वक्षेत्रमें सर्वकालमें सर्वदा उपकार कर ही रहा
'नामाऽऽकृतिद्रव्यभावैः......।' लोक की तरह भगवान का नाम भी शाश्वत हैं । 'अरिहंत' 'तीर्थंकर' ऐसे सामान्य नाम तो शाश्वत ही हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ४ 666666666666666666650 6500 २२९)