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* प्रत्येक क्षण मृत्यु चालु ही हैं । समय-समय मृत्यु हो रही हैं, यह समझमें आता हैं ? हम समझते हैं कि बड़े हो रहे हैं । हम समझते हैं कि मृत्यु आखिरमें आयेगी, परंतु आज ही भगवतीमें आया : आवीचि मृत्यु नित्य चालु हैं । प्रतिक्षण हम मर रहे हैं । जो क्षण गई उस क्षण के लिए हम मर गये। नित्य मृत्यु दिखे तो अनासक्ति प्रकट हुए बिना रह सकती हैं ?
* राग-द्वेषादि के नाश के लिए उद्यम करने से सोपक्रम कर्मों का नाश होता हैं । शायद निरुपक्रम (निकाचित) कर्म हो तो भी उसके अनुबंध तो टूटते ही हैं। कर्मों से घबराने की जरुरत नहीं हैं । कर्म से धर्म बलवान हैं ।।
उदा. आपको किसी के उपर गुस्सा आया । आपने आपकी भूल के लिए माफी मांग ली । तो आपको अब दूसरी बार गुस्सा नहीं आयेगा । गुस्सा इत्यादि दूर करने के ये इलाज हैं ।
जिस क्रोधादि के लिए आप पश्चात्ताप करते रहते हो, वे कर्म और उनके अनुबंध टूटते ही रहते हैं । जिस क्रोधादि के लिए आपको पश्चात्ताप न हो, जो क्रोधादि आपको अखरते ही नहीं, प्रत्युत ज्यादा अच्छे ही लगते हैं, वे पाप कभी नहीं जाते । वे सब निरुपक्रम समझें । __यहां कहते हैं : फिर भी आप भगवान की कृपा से निरुपक्रम कर्मों का भी अनुबंध तोड़ सकते हो ।
कर्म तो भगवान जैसे को भी नचाते हैं। एक भगवान महावीर देव के जीवनमें कितने उत्थान-पतन देखने मिलते हैं ? भगवान जैसे को भी कर्म न छोड़ते हो तो हम कौन ? परंतु कर्म और उसके अनुबंध हम तोड़ सकते हैं, यह बड़ा आश्वासन हैं ।
(२२) धम्मनायगाणं । भगवान धर्म के नायक हैं, स्वामी हैं। उसके चार लक्षण हैं :
(१) तद्वशीकरणभावात् । (२) तदुत्तमावाप्तेः । (३) तत्फलपरिभोगात् । (४) तद्विघाताऽनुपपत्तेः ।
(१) भगवानने धर्म का ऐसा विधिपूर्वक पालन किया कि धर्म खुश-खुश हो गया, उनके वश हो गया । नौकर अच्छा काम करे तो सेठ खुश नहीं होता ?
(२२२0000000000000000@wo कहे कलापूर्णसूरि - ४)