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* चारित्र-धर्म कितना दुर्लभ हैं ? समिति-गुप्ति, पांच-महाव्रत यह व्यवहार चारित्र हैं ।
यह व्यवहार चारित्र ही भाव चारित्र का कारण बनेगा । यह व्यवहार चारित्र हैं । अंदर भाव चारित्र के लिए पालना हैं, यह नहीं भूलना चाहिए । ध्येय भूल गये तो व्यवहार चारित्र कुछ कर नहीं सकता ।
'जाण चारित्र ते आतमा, शद्ध स्वभावमां रमतो रे; लेश्या शुद्ध अलंकर्यो, मोह-वने नवि भमतो रे ।'
पू. उपा. यशोविजयजी - नवपद पूजा यह भाव चारित्र हैं । पू. हरिभद्रसूरिजी तो चारित्र के बारेमें कहते हैं :
सकलसत्त्वहिताशयामृतलक्षणः स्वपरिणाम एव । सर्व जीवों के प्रति हितपूर्ण आशयरूप अमृत लक्षण आत्मा का परिणाम ही चारित्र हैं ।
आधाकर्मी आदि दोषमें जीवों की कितनी किलामणा होगी? मैं समिति आदि बराबर नहीं पालूं तो जीवों की कितनी विराधना होगी ? - ऐसा ही आशय साधु के हृदयमें होता हैं ।।
हमारे पू. रत्नाकरसूरिजी कभी दोषित उकाला लेना पड़े तो रोते थे । यह उकाला लेने हमें उन्हें मनाने पड़ते थे । __अभी तो छ-छ महिने जोग करनेवाले, जोग पूरे होते ही नवकारसीमें बैठ जाते देखने को मिलते हैं ।
पूज्य हेमचंद्रसागरसूरिजी : तब पदवी का लक्ष था न ?
पूज्यश्री : बाह्य पदवी के लिए प्रयत्न करो उसके बजाय मोक्ष-पदवी के लिए प्रयत्न करो तो काम हो जाये । पांच पदवीयां हैं, उनमें साधु-पदवी मिल जाये तो भी काम हो जाये ।
१७० जिन के समय पूरे विश्वमें ९० अरब साधु होते हैं । अभी भी विश्वमें दो करोड़ केवली और दो अरब मुनि हैं । केवली के बाद तुरंत ही मुनिओं की संख्या की बात जगचिंतामणिमें की हैं । बोलो, यह मुनि-पदवी कितनी ऊंची गिनी गई हैं ?
यहां जितने नये दीक्षित हैं, जो श्लोक आदि कंठस्थ करने में समर्थ हैं, वे संकल्प करें : 'इस साल इतने श्लोक कंठस्थ करने (कहे कलापूर्णसूरि - ४Womoooooooooooooom २०९)