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स्वाध्याय मग्नता
२९-१०-२०००, रविवार
कार्तिक शुक्ला २, वि.सं. २०५७
* ( २० ) धम्मदयाणं ।
तीर्थ और तीर्थंकर दोनों तरण तारण जहाज हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि चतुर्विध संघ का प्रत्येक सभ्य भी तरण - तारण जहाज हैं । सुबुद्धि मंत्रीने स्वयं के राजाको जैन धर्मप्रेमी बनाया था ऐसा उल्लेख आता हैं । मयणाने श्रीपाल को धर्ममें जोड़ा था । बुद्ध-बोधित सब, साधुओं से प्रतिबोधित होते हैं । साध्वीजी से भी प्रतिबोधित होते हैं । इसलिए चतुर्विध संघ का एकेक सभ्य तरण तारण जहाज का कार्य कर रहा हैं ।
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योग्यता आने के बाद धर्म आते समय नहीं लगता । गुरु कहीं से भी आ ही जाते हैं । न आये तो देव भी वेष दे देते हैं। रणसंग्राममें अजितसेन राजा को वैराग्य हुआ तो देवोंने वेष दिया था । यद्यपि पूर्वजन्ममें गुरु भगवान इत्यादि कारण तो थे ही ।
हृदयमें भगवान के प्रति अनुराग जगने पर तुरंत ही भगवान की तरफ से बहता अनुग्रह का प्रवाह हमारे अंदर आने लगता ही हैं । काशी में पढकर आये हुए, बड़े वादीओं को हरानेवाले महान तार्किक पू. उपा. यशोविजयजी जैसे जब भगवान की भक्ति को
कहे कलापूर्णसूरि ४wwwwwwwwwww
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