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यह नाद मात्र साधक ही सुन सकता हैं, पासमें रहा हुआ दूसरा भी नहीं सुन सकता ।
साधक कोई संगीत सुनने के लिए नहीं निकला हैं, यह तो प्रभु को मिलने निकला हैं । बीचमें होता नाद-श्रवण तो मात्र माईलस्टोन हैं । साधक को वहां रुकना नहीं हैं ।
(१३)तारा, (१४) परमतारा :
मनकी तरह काया और वचन की स्थिरता भी जरुरी हैं । मात्र मानसिक ध्यान नहीं हैं, वाचिक, कायिक, ध्यान भी हैं । 'ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं' यह पाठ इसी बात का सूचक
द्रव्यसे तारा, वर-वधू की आंखों का मिलन (तारा मेलक) वह ।
भाव से कायोत्सर्गमें निश्चल दृष्टि ।
पूर्व के ध्यानोंमें से गुजरे हुए साधक की दृष्टि निश्चल बनी होती हैं। . कोई भी भगवान छद्मस्थ अवस्थामें कायोत्सर्गमें ही रहते हैं ।
* ध्यान अर्थात् ज्ञान की सूक्ष्मता - तीक्ष्णता हैं । अर्थात् चारित्र और ध्यान एक ही हैं ।
'ज्ञाननी तीक्ष्णता चरण तेह ।' पू. धुरंधरविजयजी म. : कायोत्सर्गमें निश्चल दृष्टि कहां ? बाहर या अंदर ?
पूज्यश्री : चैत्यवंदन के समय प्रतिमामें, गुरु सामने हो तब वहां अनिमेष दृष्टि रखनी ।
कायोत्सर्ग जिनमुद्रामें व्यवस्थित होता है तब दृष्टि निश्चल होने पर मनकी निश्चलता आती हैं । दृष्टि और मन, दोनों की चंचलता
और निश्चलता परस्पर सापेक्ष हैं । अर्थात् दृष्टि निश्चल बनती हैं तब मन निश्चल बनता हैं । मन निश्चल बनता हैं तब दृष्टि निश्चल बनती हैं।
कायोत्सर्ग का महत्त्व बहुत ही हैं । मात्र १०० कदम आप बाहर गये और आपको कायोत्सर्ग करना अनिवार्य हैं । क्या कारण होगा वहां ? (कहे कलापूर्णसूरि - ४Wommonommonomoooo १३५)