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उपादान आत्मा तो आपको ही तैयार करनी पड़ेगी । आपके बिना दूसरा कोई भी नहीं कर सकता । मैं आपको कहने के अलावा क्या कर सकता हूं? ऐसे तो मुझे इस ग्रंथमें जल्दी आगे जाना हैं, पर बीच बीचमें आपके योग्य ऐसी हितशिक्षाएं न दूं तो अपराधी गिना जाऊं ।
* मार्ग अर्थात् चित्त की सीधी गति । यहाँ स्वरसवाही क्षयोपशममें हेतु, स्वरूप और फल से शुद्ध प्रशम सुख का आनंद अनुभव करने को मिलता हैं । इस आनंद को बताने के लिए पू. हरिभद्रसूरिजीने यहाँ 'सुखा' शब्द का प्रयोग किया हैं, पंजिकाकार पू. मुनिचंद्रसूरिजीने 'सुखा' शब्द का अर्थ 'सुखासिका' किया हैं । सुखासिका याने प्रशम सुख की मिठाई!
ऐसी प्रशम सुखकी मिठाई मैं अकेला खाऊं तो नहीं चलता, मैं सभी को देना चाहता हूं । हमारे फलोदीमें भीखमचंदजी जलेबी लाकर घर के कोनेमें बैठकर अकेले-अकेले खाते थे । किसी को नहीं देते थे । कारणमें कहते : मैं अब कितने दिन जीऊंगा? तुम तो बहुत खाओगे । मैं कितने दिन?
मैं ऐसा कंजूस होना नहीं चाहता । प्रशम की मिठाई सबको मिले ऐसी भावना रखता हूं।
अंदर के प्रशम सुख का अंतरंग कारण कर्मों का क्षयोपशम हैं । बाहर का कारण गुरु, प्रतिमा आदि हैं। कर्मों का क्षयोपशम न हुआ हो तो बाहर के कारण गुरु, प्रतिमा आदि कुछ नहीं कर सकते ।
यह प्रशम का सुख दिन-प्रतिदिन बढना चाहिए । यदि इसे बढाते न रहे तो घटता रहेगा । व्यापारी जिस दिन नहीं कमाता उस दिन कुछ खोएगा ही । दिन-दिन बढता जाये वहीं सानुबंध प्रशम कहा जाता हैं ।
(कहे कलापूर्णसूरि - ४Woooooooooooooooom १८३)