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वि.सं. २०२७, आधोई
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२०-१०-२०००, शुक्रवार
कार्तिक कृष्णा - ८
'* काव्य-कोश इत्यादि का पू.पं. मुक्तिविजयजी (लाकडीया) के पास अभ्यास करके मांडवी (वि.सं. २०१३) चातुर्मासमें पू. कनकसूरिजी के पास मैं गया और कहा : 'कोई संस्कृत ग्रंथ पढाईए।'
पूज्यश्रीने कहा : अब स्वयमेव पढने का प्रयत्न करो । दूसरों के भरोसे कहाँ तक रहना हैं ।
गुरुदेव के आशीर्वाद से मैंने अपने आप पढना शुरु किया। पांडव-चरित्र के एक घण्टेमें मुश्किल से दस श्लोक पढ सकता था । पर जो श्लोक पढता वह बराबर पढता । इससे धीरे-धीरे संस्कृत ऐसा खुल गया कि कोई भी ग्रंथ हाथमें आते वह बराबर खुल ही जाता हैं । उस चातुर्मासमें तब हीर-सौभाग्य, कुमारपालचरित्र, पांडव-चरित्र इत्यादि का वाचन किया । दूसरा काम क्या होता हैं साधुको ?
इन सबमें भगवान की कृपा ही काम कर रही हैं, ऐसा मुझे नित्य लगता । इसलिए ही भक्ति पर मैं ज्यादा से ज्यादा झुकाव देता गया । आज भी देता हूं । पू.पं. मुक्तिविजयजी म. कहते : मैं यह प्राकृत व्याकरण और कोश साथमें ले जाना (कहे कलापूर्णसूरि - ४00
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