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'विमल जिन ! दीठा लोयण आज' सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के समय ये भाव प्रकट हुए हैं ।
दुःख-दौर्भाग्य गये । सुख-संपत्ति मिली, सिर पर मजबूत मालिक हैं । अब अन्यत्र कहां फिरना ?
जिस लक्ष्मीको मैं ढूंढ रहा था वह तो हे प्रभु ! तेरे चरणमें बैठी हुई दिखाई दी । मेरा मन भी तेरे चरणमें गुण-मकरंद का पान करने के लिए लालायित हो रहा हैं ।
* हमारे भाव को भगवान को सौंप देना हैं ।
भगवान को संपूर्ण समर्पण करना, वह प्रीतियोग । पत्नी जैसे पतिको संपूर्ण समर्पित हो जाती हैं । स्वयं के बालक के पीछे नाम भी पति का ही लगाती हैं । भक्त भी स्वयं का नाम भगवानमें डूबा देता हैं। __ प्रभु के गुणोंमें हमारी चेतना का निवेश करना, इसके आनंद का अनुभव करना, वह परमलय हैं ।
दो दिन छुट्टी हैं । ध्यान विचारमें विवेचन पढ जायें । पढ जायेंगे तो पदार्थ खुलेंगे ।
यहां बैठे हुये पड़ितों को भी ये सभी पदार्थ ख्यालमें आ जाये तो वे भी इसका खूब ही प्रचार कर सकेंगे । एक पू.पं. भद्रंकर वि. महाराजने नवकार का कितना प्रचार किया ? कितने लोगों को नवकार के प्रेमी बनाये ?
* चार शरणमें नौंओं पद समाविष्ट हैं । (१) अरिहंत, (२) सिद्ध, (३) साधु, (४) धर्म ।
साधुमें आचार्य, उपाध्याय, साधु । धर्ममें दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप.
* हिमालय के बड़े-बड़े योगी नवकार को सुनाते हैं तब सानंद आश्चर्य होता हैं । अरिहंत किसी एक के नहीं, समग्र विश्व के हैं ।
(१७)लव, (१८) परम लव :
द्रव्य से लव : औजार वगैरह से घास वगैरह काटना वह द्रव्य लव ।
शुभ ध्यान रूप अनुष्ठानों से कर्मों को काटना वह भाव लव । (१४०0000000000000000 कहे कलापूर्णसूरि - ४)