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'जिम निर्मलता रे रतन स्फटिकतणी, तिम ए जीव स्वभाव; ते जिन वीरे रे धर्म प्रकाशीयो, प्रबल कषाय अभाव; जिम ते राते रे फूले रातडुं, श्याम फूलथी रे श्याम; पुण्य-पापथी रे तिम जगजीवने, राग-द्वेष परिणाम ।'
पू. उपा. यशोविजयजी । १२५ गाथा का स्तवन जीव की शुद्धता के पुष्ट निमित्त एकमात्र भगवान ही हैं । 'बिना निमित्तालंबी बने, जीव कभी उपादानालंबी बन नहीं सकता ।' इस प्रकार टब्बेमें पू. देवचंद्रजीने स्वयं लिखा हैं । ' इसलिए हे भव्यो ! आप अरिहंत की भक्तिमें डूब जाओ ।' इस प्रकार पू. देवचंद्रजी कहते हैं ।
आत्म- अवलंबन कैसे किया जाय !
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पूज्य श्री : प्रथम परमात्मा को समर्पित होकर उनका अवलंबन लें । उनके गुणोंमें तादात्म्य होने से 'मैं कुछ हूं' इत्यादि अहंकाररूप विकल्परहित हो सकते हैं । ऐसा शुद्ध परिणाम आत्मा का अवलंबन हैं । ज्ञानस्वरूप ऐसे आत्मा की यह दशा ही समभाव हैं ।
सुनंदाबहन वोरा
कहे कलापूर्णसूरि ४
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