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चित्त जब जब चपल हो तब तब विचारें : चित्त चपल क्यों हैं ? जिस जिस शब्दादि का ग्रहण करते हैं उसके उसके विचार
आयेंगे ही । इससे ही मन चंचल होता हैं । काजल के कमरे में रहे हुए हमें कालापन न लगे उस तरह रहना हैं ।
पांचों इन्द्रियों की तरफ दौड़ती इन्द्रियों को रोकनी हैं । उन वृत्तिओं को अंदर पड़ा हुआ विशाल खजाना बताना हैं ।
भगवान पर बहुमान तो ही गिना जाता हैं यदि विषयों की विमुखता हो । भवाभिनंदी कभी भगवान का भक्त बन नहीं सकता । विषयों पर वैराग्य, भगवान पर बहुमान का सूचक हैं । विषयों पर वैराग्य न हो तो बहुमान प्रकट नहीं हुआ हैं, ऐसा नक्की
मानें ।
* भगवान तो स्व पदवी देने के लिए तैयार हैं, पर हमारे अंदर योग्यता चाहिए न ? भगवानमें गुणों का प्रकर्ष प्रकट हुआ हैं । गुण भगवान के पास ही मिलेंगे। ये सब पदार्थ पू. हरिभद्रसूरिजीने यहाँ अद्भुत ढंग से खोले हैं । करोड़-करोड़ वंदन करते हैं उनके चरणों में ।
रोग-रहित शरीर स्वस्थ कहा जाता हैं, उसी तरह अपने स्वभावमें रही हुई आत्मा स्वस्थ कही जाती हैं । उसका भाव वह स्वास्थ्य कहा जाता हैं।
'समर्थ की (भगवान की) गोदमें बैठा हुआ हूं।' भक्त को सदा ऐसा भाव रहता हैं । इसलिए ही वह कभी अस्वस्थ नहीं बनता । भयभीत नहीं बनता ।
भगवानमें गुण प्रकर्ष के साथ पुण्य-प्रकर्ष भी हैं । अचिन्त्य, शक्ति भी हैं । इसलिए ही उनमें परोपकार का भी प्रकर्ष हैं ।
गुण प्रकर्ष के बिना अचिन्त्य शक्ति नहीं आती । अचिन्त्य शक्ति के बिना अभयप्रद शक्ति नहीं आती । __ अभयप्रद शक्ति के बिना परार्थकरणता प्रकट नहीं सकती ।
दर्शन, ज्ञान और चारित्र के क्रम की तरह यह क्रम भी समझने जैसा हैं ।
परार्थकरणता प्राप्त करनी हो तो अभयप्रद शक्ति चाहिए । इसके लिए अचिन्त्य शक्ति चाहिए । अचिन्त्य शक्ति प्राप्त करनी
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