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हम इनके मार्ग पर चलनेवाले हैं । हमसे मेरे-तेरे का भेद कैसे हो सकता हैं ?
भगवान तो सूर्य की तरह किसी भी भेद के बिना सर्वत्र प्रकाश फैला रहे हैं । सूर्य तो फिर भी अस्त हो सकता हैं । राहु से ग्रस्त या बादल से ढक सकता हैं । भगवान तो सदा उदय पा रहे हैं, सदा प्रकाश फैला रहे हैं । करुणा के प्रकाश को पकड़ने मात्र हमें सन्मुख होने की जरुरत हैं ।
यह आर्हती करुणा कुछ ही काल नहीं, सर्व काल और सर्व क्षेत्रमें बरस रही हैं । यह अगर नहीं बरसती होती तो विश्वमें अराजकता फैल गई होती । समग्र विश्व का मूलाधार भगवान की यह करुणा ही हैं । अरिहंत व्यक्ति के रूपमें बदलते रहते हैं, लेकिन आर्हन्त्य शाश्वत हैं । इसलिए ही आर्हती करुणा भी शाश्वत हैं । इसलिए ही सिद्धर्षिने उपमितिमें संसार को नगर बनाकर सुस्थित (भगवान) को महाराजा के रूपमें बताये हैं । इस संसार नगर के महाराजा भगवान हैं, यह समझमें आता हैं ? यह समझने के लिए ही हम इस ग्रंथ का अभ्यास कर रहे हैं।
(१६) चक्खुदयाणं ।
चक्षु से यहाँ द्रव्य आँख नहीं, पर विशिष्ट आत्म धर्मरूप तत्त्व के अवबोध (ज्ञान) का कारण श्रद्धारूप आँख लेनी हैं । श्रद्धा-रहित आदमी आध्यात्मिक जगतमें अंधा ही हैं । अंधे को भौतिक पदार्थ नहीं दिखते । श्रद्धाहीन को परम चेतना नहीं दिखती, तत्त्व का दर्शन नहीं होता ।
श्रद्धा की ऐसी आँख अभय मिलने के बाद ही मिलती हैं। अभय मतलब स्वस्थता । चित्त स्वस्थ और प्रशांत बनने के बाद ही श्रद्धा की आँख मिलती हैं। जिसके चित्तमें अभय का अवतरण नहीं हुआ वह श्रद्धा की आँख के लिए आशा नहीं रख सकता । यहाँ पक्षपात नहीं हैं, पर योग्यता की बात हैं ।
आँख के बिना जगत के दर्शन नहीं होते ।
अंतर चक्षु के बिना आत्मा के दर्शन नहीं होते । किंतु हमें आत्मा के दर्शन करने कहाँ हैं ? इसके लिए कोई लगन है ? इधर-उधर के कैसे विषयों में फंस गये हैं हम ?
(१७८0000ooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)