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* भवनयोग और करणयोग का स्वरूप । वीर्य के आठ प्रकार हैं :
योग : राजा अधिकारीयों को आदेश करता हैं उस तरह आत्मा आत्मप्रदेशों को कर्मक्षय के लिए कार्यशील बनाता हैं ।
वीर्य : दासी द्वारा कचरा फेंका जाता हैं, उस प्रकार कर्मों का कचरा फेंकना ।
स्थाम : दंताली (खेती का एक साधन) से कचरा खींचा जाता हैं, उस प्रकार क्षय करने के लिए कर्मों को खींचना ।
उत्साह : फौव्वारे से पानी ऊपर चढ़ाया जाता हैं उस प्रकार कर्मों को ऊंचे ले जाना ।
पराक्रम : छिद्रवाले छोटे कुंडरे में से तेल को नीचे ले जाया जाता हैं उस प्रकार कर्मों को नीचे ले जाना ।
चेष्टा : तपे हुए लोहेमें पानी की तरह कर्मों को सूखाना ।
शक्ति : तिलमें से तेल को अलग करने की तरह कर्मजीव का साक्षात् वियोग कराना ।
आत्म-तृप्ति का लक्षण वीर्य की पुष्टि हैं । आत्म-वीर्य की पुष्टि न हो तो थोड़ी-थोड़ी देरमें चित्त चंचल हुआ करता हैं, विचलित हो जाता हैं।
ये योग वगैरह आठको तीनसे गुनते २४ भेद ।
उन २४ को प्रणिधान, समाधान, समाधि और काष्ठासमाधि के साथ गुनते ९६ भेद हुए ।
९६ करण योग : तीर्थंकरो की तरह पुरुषार्थ से । ९६ भवन योग : मरुदेवी की तरह स्वाभाविक । कुल १९२ भेद ।
* मैंने कोई प्रक्रिया नहीं सीखी हैं, फिर भी प्रभुकी प्रसादी मिली हैं। वह भवन योगमें शायद जा सकती हैं, ऐसा अब समझमें आता हैं ।
* चिंतन मन का खुराक हैं । उसका अभाव वह मनका अनशन । चिता के अभाव से मानो मन नष्ट हो गया हो वैसा लगे वह उन्मनीकरण । अर्थात् मनकी मृत्यु । (ध्यान विचार - वाचना समाप्त)
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