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खास शीखने मिला था । ___'उचियपडिवत्तीए सिया' - मैं उचितकार्य करनेवाला बनूं । - यों पंचसूत्रमें प्रार्थना की गई हैं।
ध्यानमें जाना सरल हैं, पर जीवों के साथ मित्रता निभानी, उनकी सेवा करनी, उचित कर्तव्य करना, बहुत कठिन हैं । यह बात पू.पं. भद्रंकरविजयजी महाराजने बहुत ही धूंट-घूटकर समझाई थी।
* ग्रहण, परिणमन, अवलंबन और विसर्जन - इन चार के क्रम से भाषा - वर्गणा का उपयोग होता हैं ।
ग्रहण : सबसे पहले भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करना । परिणमन : उन पुद्गलों को उस रूपमें परिणाम प्राप्त कराना । उसके बाद अवलंबनपूर्वक छोड़ना । (विसर्जन)
इस क्रम से ही हम बोल सकते हैं । पर यह इतनी झड़प से होता हैं कि हमें पता भी नहीं चलता ।
* आत्मा के ज्ञान गुण वगैरह पर जिस तरह आवरण हैं, उसी तरह ग्राहकता, भोक्तृता, कर्तृता वगैरह शक्तिओं पर कोई आवरण नहीं हैं । ये शक्तियां कार्य कर ही रही हैं । मात्र उसकी दिशा उलटी हैं । उलटी दिशामें जानेवाली हमारी शक्तियां हमारा ही विनाश कर रही हैं । अब, प्रभुके आलंबन से इन शक्तिओं को विकास की तरफ घुमानी हैं, केन्द्रगामी बनानी हैं, बहिर्गामी शक्तिओं को अन्तर्गामी बनानी हैं ।
* 'मैंने इतने भोग भोगे । इतनी सत्ता प्राप्त की । इतना धन इकट्ठा किया' ऐसा मानकर कोई अभिमान करने की आवश्यकता नहीं हैं । इसमें तूने कौन-सा बड़ा काम किया ? सभी ऐसा ही कर रहे हैं।
* हितशिक्षा के रूपमें ऐसा कह सकते हैं : हम परस्पर सहायता करें तो 'जीव' कहे जायें, सहायता न करें तो 'अजीव' के भाइ कहे जायेंगे ।
परस्परोपग्रहो जीवानाम् सूत्र से यह सीखना हैं ।
जीवास्तिकायमें से एक प्रदेश भी निकाल दें तो वह खंडित हो जाता हैं, जीवास्तिकाय ही नहीं कहा जाता । विचारो ! एक (कहे कलापूर्णसूरि - ४Boooomoooooooom १५१)