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मूल हैं । भगवान के बिना अन्य व्यक्ति और वस्तु का प्रेम कम हो तो ही भगवान का प्रेम सच्चा गिना जाता हैं । व्यवहारसे सभी के साथ संपर्क होता हैं, परंतु भक्तको भगवानसे अधिक प्रेम अन्य कहीं भी नहीं ही होता हैं ।
भगवान के प्रति पूर्णराग प्रगटाइए ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : बहुत अद्भुत । हृदयको आर्द्र बना दे ऐसा सुनने मिला ।
पूज्यश्री : अब वह दूसरों को देना ।
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : आपने ही योग कर दिया हैं । क्षेम भी आपको ही करना हैं ।
पूज्यश्री : योग-क्षेम करनेवाले तो भगवान हैं । मैं कौन ? पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : हमारे लिए तो आप ही हैं ।
'कडं कलापूर्णसूरिए' पुस्तक मिली । पुस्तक हाथमें लेते ही उसकी आकर्षक सजावट और विशेष तो सचोट, सरल, गंभीर, अलौकिक लेखन-श्रेणि देखकर पूरी पुस्तक एक साथ पढ लेने का मन हो जाता हैं।
पू. आचार्यदेवकी वाचनाओं - व्याख्यानादि का अद्भुत सार, आपश्रीने जो अपनी कुशलता से लिखा हैं वह बहुत ही अद्भुत-अप्रतिम हैं। आपकी यह पुस्तक मिलेनीयम रेकार्ड प्राप्त करे यही शुभेच्छा ।
- जतिन, निकुंज
बरोड़ा
(३८ oooooooooooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - ४)