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मनफरा - कटारिया संघ, वि.सं. २०५५
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७-१०-२०००, शनिवार अश्विन शुक्ला द्वि. - ९
दोपहर : पू. देवचंद्रजी चोवीसी
__ स्तवन दूसरा । * 'परमात्मा और मैं एक हैं, तो उनका सुख भी मेरे अंदर पड़ा हुआ ही हैं ।' ऐसा साधक को विश्वास उत्पन्न होता हैं । विश्वास उत्पन्न होते ही उस तरफ की रुचि जगती हैं ।
एक शाश्वत नियम हैं : जिस तरफ हमारी रुचि हुई, उस तरफ हमारी ऊर्जा गतिमान होती हैं । ऊर्जा हमेशा रुचि का अनुसरण करती हैं ।
* परकर्तृत्व का अभिमान हमारे अंदर इतना पड़ा हुआ हैं कि हमारी आत्मा इससे भिन्न हैं, वह कभी समझमें ही नहीं आता । भीतर परमात्मा प्रकट होते वह अभिमान मिट जाता हैं । अंदर की रुचि जगते ही हमारे ग्राहकता, स्वामिता, व्यापकता, भोक्तृता, श्रद्धा, भासन, रमणता, दानादि गुण आत्मसत्ता के रसिक बनते हैं । बाहर जाती ऊर्जा केन्द्र की ओर लौटती हैं। बाहर जाती ऊर्जा व्यर्थ जाती हैं । स्वकेन्द्रगामी ऊर्जा शक्तिशाली बनाती हैं।
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