________________
हमारी विशुद्धि का प्रकर्ष बढता जाय त्यों त्यों प्रभु ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट होते जाते हैं ।
समता बढती जाय वैसे आनंद बढता जाता हैं ।
योगसार में भगवान को 'स्वतुल्यपदवीप्रदः' कहे हैं । भगवान मोक्ष के दाता औपचारिक होते तो ऐसा विशेषण नहीं होता । इससे भी आगे बढकर नमुत्थुणं की स्वतुल्यपदवीप्रद संपदामें भगवान की 'जिणाणं जावयाणं' इत्यादि विशेषणों से स्तुति की हैं, वह भी इसी बात का सूचक हैं : भगवान मात्र जीतनेवाले नहीं, जीतानेवाले भी हैं ।
बुद्ध ही नहीं, बोधक भी हैं ।
मुक्त ही नहीं, मोचक भी हैं ।
*
सांसारिक सुखोंमें सुखका आरोप करके हम भ्रमणामें पड़े हुए हैं । प्रभु - प्राप्ति से ही यह हमारी भ्रमणा टूटती हैं ।
अपार्थिव आस्वाद
भव्यात्मन् ! भोजन के षड्स पौद्गलिक पदार्थ जीह्ना के स्पर्श से सुखाभास उत्पन्न करते हैं । कंठ के नीचे चले जाने के बाद उसका आस्वाद चला जाता हैं, जबकि आत्मामें रहा हुआ शांतरस सर्वदा सुख देनेवाला हैं । उसमें पौद्गलिक पदार्थों की जरुरत नहीं होती । वह आत्मामें छुपा हुआ हैं । आत्मा द्वारा ही प्रकट होता हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि ४ wwww
-
0000
११५