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तीन चीजों के बिना लड्ड नहीं बनते, उसी प्रकार रत्नत्रयी के बिना ध्यान नहीं मिलता । चिंता में ज्ञान-दर्शन और भावनामें चारित्र आ गये हैं ।
आर्त्त-रौद्र ध्यान भी इसी तरह बनते हैं । सिर्फ वहां मिथ्यादर्शनादि तीन पड़े हुए हैं । अनादि के अभ्यास से वह सहज रूप से हो जाता हैं ।
पहले २४ ध्यान के भेदों को पढकर फिर उस पर विवेचन विचारेंगे ।
* द्रव्य से आर्त्त-रौद्र ध्यान हैं । भाव से आज्ञा विचयादि धर्मध्यान कहे जाते हैं । इसीका यहां अधिकार हैं । प्रारंभमें ऐसा (आज्ञा - विचयादि स्वरूप) धर्मध्यान भी आ जाये तो भी काम हो जाये । धर्म-शुक्ल ध्यान न ध्यायें तो अतिचार लगता हैं । जो रोज हम बोलते हैं । हम इससे विपरीत ही करते हैं । निषिद्ध करते हैं, विहित छोड़ते हैं । फिर जीत कैसे मिलेगी ?
इसकी कला जानने से २४ घण्टे चित्त धर्म-ध्यानमें रहता हैं । भावनाओं से भावित बनने से ऐसा हो सकता हैं । धर्मध्यानमें से चित्त नीचे आने पर (क्योंकि अंतमुहूर्त से ज्यादा चित्त एक ध्यानमें नहीं रह सकता ।) फिर चिंता-भावना का जोर देना हैं । इस तरह पुनः पुनः दीर्घकाल तक करना हैं ।
एक बार भी ऐसा आस्वाद मिलेगा तो कभी भूल नहीं सकोगे । रसगुल्ले खाने के बाद उसका आस्वाद भूल जाते हैं ? पांचों इन्द्रियों के आस्वादसे हम वंचित होकर, आत्मा के स्वाद से दूर रह जाते हैं । __आत्मा को तो परमात्मा द्वारा ही आनंद आ सकता हैं, ये ही इसके सजातीय हैं । २४ घण्टे प्रभु-मुद्रा प्रसन्न हैं । इनका नाम लेते, भक्ति करते मन आनंद से भर जाता हैं । इनके नाम-मूर्ति वगैरह के आलंबन से भी ध्यान की भूमिका तैयार हो जाती हैं । ध्यान के पूर्व चित्त को यदि निर्मल न बनायें तो ध्यान का अधिकार मिल नहीं सकता । मन तो ऐसे भी बंदर हैं । उसमें भी मोह का शराब पीया हो फिर पूछना ही क्या ? दौड़ते मनको स्वाध्यायमें भावना (भावना का मतलब अभ्यास होता हैं । अभ्यास याने पुनः पुनः प्रवृत्ति । उदाः ज्ञानाभ्यास, दर्शनाभ्यास वगैरह) में जोड़ना हैं । (कहे कलापूर्णसूरि - ४ wwwwwwwwwwwwwwwwww ८७)