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पर्याय का अर्थ यहां कार्यता हैं ।
वृद्धि : दूधमें पानी = पानी की दूध के रूपमें वृद्धि होती हैं, उसी तरह जीवकी प्रभु के रूपमें वृद्धि होती हैं ।
एकता : दूधमें शक्कर = दूध और शक्कर की मधुरता अलग नहीं रहते; उसी तरह जीव और प्रभु अलग नहीं रहते ।
तुल्यता: स्वाद एक समान ।
ऐसी विचारणा से चित्त त्रिभुवन-व्यापी बनता हैं ।
उसके बाद प्रभुमें स्वयं को देखना और स्वयंमें प्रभु को देखना । मन हो और विचार न हो तो जी नहीं सकते ? नौकर के बिना सेठ जी नहीं सकते ?
भगवान केवलज्ञान से देखते हैं, हमें श्रुतज्ञान से देखना
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प्रभु शुद्धरूप से सर्व को देखते हैं । हम दूसरों को दोष नजर से देखते हैं ।
* मेरी आत्मा भी अनंत पंच परमेष्ठी जैसी हैं। ऐसे भाव से संकोच होता हैं । अनंत परमेष्ठीओं का संकोच एक स्व आत्मामें हुआ । * इन्द्रिय और मनकी सीमा हैं । आत्मा असीम हैं । * दिव्यचक्षु से आत्मा का दर्शन होता हैं । ऐसा होने से समाधि प्रकट होती हैं ।
* अंतरात्मामें स्थिरता के लिए बहिरात्मामें से निकलना पड़ता हैं । उसके बाद परमात्म- दशा प्रकट होती हैं ।
(५) कलाध्यान :
अन्यों को इसके लिए हठयोग करना पड़ता हैं । जैन मुनि को सहज रूप से कुंडलिनी का उत्थान हो जाता हैं ।
हमें हठयोग नहीं करना हैं, सहजयोगमें जाना हैं । प्राणायाम करने की मना हैं । स्वाध्याय बगैरहमें मन, प्राण आदि की शुद्धि होती ही रहती हैं । अत्यंत ध्यान की सिद्धि होते स्वयमेव कुंडलिनी खुलती हैं । कुंडलिनी अर्थात् ज्ञान-शक्ति ।
यहां आचार्य पुष्पभूति का उदाहरण दिया हैं ।
ज्ञान-शक्ति का आनंद लूटने आचार्य पुष्पभूति, एक उत्तरसाधक (शिथिल होने पर भी इस विषयमें जानकार) मुनि को बुलाकर
कहे कलापूर्णसूरि ४
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