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* कुंडलिनी साधने की नहीं हैं, मात्र ज्ञाताद्रष्टाभाव के रूपमें देखनी हैं । प्राण द्वारा ज्ञान शक्ति आती हैं, उपयोग उंचाई पर जाता हैं, जब उर्ध्वगामी बनती हैं, फिर वह चेतना नीचे आती हैं । इस प्रकार आरोहण अवरोहण होता रहता हैं ।
* चलते समय कभी माईलस्टोन आने पर भी ध्यान न जाये तो कोई मंझिल नहीं आती ऐसा नहीं हैं । इसी तरह हमारी साधना में नाद, बिंदु, कला, वगैरह न दिखे तो चिता मत करना, प्रभु के पास नाद आदि के बिना भी पहुंच सकते
'जे उपाय बहुविधनी रचना, जोगमाया ते जाणो रे; शुद्ध द्रव्य गुण पर्याय ध्याने, शिव दीये प्रभु सपराणो रे ।'
- पू. उपा. श्रीयशोविजयजी (६) परमकला
योगशास्त्र के प्रथम प्रकाशमें आचार, चौथेमें कषाय-इन्द्रिय मनोजय के उपाय, पांचवे प्रकाशमें प्राणायाम, उसके बाद प्राणायाम की निरर्थकता बताकर अन्य ध्यान के उपाय बताये हैं ।
अभ्यास अत्यंत सिद्ध हो जाने के बाद अपने आप ही समाधि जागृत होती हैं।
१४ पूर्वधरों को जो महाप्राणायाम - ध्यानमें होता हैं वह परमकला हैं । जिसे भद्रबाहुस्वामीने सिद्ध किया था ।
इस कालमें कुंडलिनी के अनुभव चिदानंदजी के पदोंमें देखने को मिलते हैं । उनका एक पद देखें :
सोहं सोहं सोहं सोहं सोहं सोहं रटना लगीरी; इंगला पिंगला सुषमना साधके, अरुणपतिथी प्रेम पगीरी... अरुणपति = सूर्य । सूर्य अर्थात् शुद्ध आत्मा ।
वंकनाल षट् चक्र भेद के, दशम-द्वार शुभ ज्योति जगीरी; खुलत कपाट घाट निज पायो,
जनम जरा भय भीति भगीरी । बिना अनुभव ऐसा लिखने की इच्छा ही नहीं होती । बिना अनुभव की वाणी देखते ही पता चल जाता हैं । आप सहजता
(कहे कलापूर्णसूरि - ४00000000000000000000 १११)