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* प्रेम के बिना कभी तन्मयता आती ही नहीं । एकता राग की उत्कटता ही हैं । प्रीति-भक्ति आदि चारों अनुष्ठानोंमें क्रमशः बढती जाती प्रीति ही हैं । पहले प्रभु नाममें प्रीति थी, फिर मूर्तिमें, आगममें (वचन) प्रीति होती गई ।
सिद्धोंमें भी प्रीति होती हैं, प्रीति की पराकाष्ठा होती हैं । सकलसत्त्वहिताशयं चारित्रं सामायिकादिक्रियाऽभिव्यज्यम् ।
सामायिक आदि क्रियाओं से अभिव्यक्त होता चारित्र सकल जीवों पर हितके आशयवाला होता हैं ।
तीर्थंकरमें इसकी पराकाष्ठा होती हैं ।
सकल जीवों के हिताशय की पराकाष्ठा के प्रभाव से ही सकल जीवों के योग-क्षेम करने की ताकत भगवानमें प्रगट होती हैं ।
आपके शिष्य बढते हैं तो आपको आनंद होता हैं न ? आप मानते हैं कि हमारा परिवार बढा । समग्र जीव भगवान का ही परिवार हैं । इसे देखकर भगवान को आनंद नहीं होता ?
* भगवान की प्रभुता का आलंबन लेने से 'अविचल सुखवास' मिलता हैं । यह 'अविचल वास' हमारी आत्मामें ही
* आज्ञा पाले वह भक्त । आज्ञा का उच्छेद करे वह अभक्त । भगवान को स्वयं की आज्ञा का पालन करवाने का या पूजा करवाने का शौक नहीं हैं । पर उनकी आज्ञा सर्व के हित के लिए हैं।
* आत्म-स्वरूपमें स्थिर बनना वह संवर । आत्म स्वरूप से च्युत बनना वह आश्रव । दूसरा स्तवन : ज्ञानादिक गुण संपदा रे...
* प्रभु के साथ प्रेम जगा हो तो उनका ऐश्वर्य देखकर भक्त को आनंद होता ही हैं । जैसे किसी का अच्छा बंगला देखकर दूसरे को वह प्राप्त करने का मन होता हैं ।
भगवान के ऐश्वर्य की रुचि पैदा हुई अर्थात् मोक्षमार्ग शुरु हुआ । रुचि हो तदनुसार ही हमारा वीर्य चलता हैं । 'रुचि अनुयायी वीर्य ।' कहे कलापूर्णसूरि - ४6wwwwwwwwwwwwwwwwwwn १०७)