________________
स्वाध्याय मग्नता
२०-९-२०००, शनिवार
अश्विन शुक्ल - ३
(१३) लोगपईवाणं ।
* अंधेरेमें टकराते हुए हमारे लिए प्रभु-वचन प्रकाश बनते हैं । जिन-वचन प्रकाशरूप तब लगते हैं, जब हम स्वयं अंधेरेमें टकरा रहे हैं, ऐसा लगे ।
तीर्थ रहे तब तक प्रभु-वचन प्रकाश देते ही रहेंगे । भोजनशालाका स्थापक भले मृत्यु पा जाय, फिर भी जहां तक वह भोजनशाला चले वहां तक वह स्थापककी ही गिनी जाती हैं । यह तीर्थभी आत्माकी भोजनशाला ही हैं ।
* आज भगवतीमें ऐसा पाठ मिला, जिसे मैं बरसों से ढूंढ रहा था । पू.पं. भद्रंकर वि.महाराजने खास कहा था : पंचास्तिकाय परस्पर सहायक बनते हैं ऐसा कोई पाठ मिले तो ढूंढीए । आज वैसा ही पाठ मिला हैं ।
परस्पर उपकार करना, यह तो धर्म हैं । उपकार नहीं करना यह अपराध हैं । इस अपराधकी ही सजा के रूपमें ही हमें दुःखमय संसार मिला हैं ।
* प्रकाशका थोड़ा ही सहारा मिलने पर अंधेरेमें घाटमें पड़ते
[कहे कलापूर्णसूरि - ४000000000000000000000000७५)