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बच जाते हैं । प्रकाश का यह थोड़ा उपकार हैं ?
दो धातुवादी भयंकर अंधकारपूर्ण गुफामें मशाल लेकर गये हो और बीचमें मशाल बुझ जाय तो क्या होगा ? आसपास कहीं प्रकाश नहीं हैं । चलना कैसे ? जाना कैसे ? वही समस्या हो जाय । अंदर बहुत ज़हरीले प्राणी फिरते हो उसका डर हों । ऐसी ही हालत हमारी थी । श्रुतज्ञानका दीप न मिला होता तो हमारी हालत ऐसी ही होती । श्रुतज्ञानकी किंमत कितनी ? यह आप ही विचारीए ।
किंतु निशाचरको अंधेरेमें ही फिरना अच्छा लगता हैं । प्रकाश आते ही आकुल-व्याकुल हो उठते हैं । हमें अज्ञानके अंधकारकी आदत नहीं पड़ गयी न...?
मेरी ही बात करूं : थोड़ी देर प्रभुके वाक्य भूल जाउं तो मैं आकुल-व्याकुल हो जाता हूं। आनंदघनजी की भाषामें कहूं तो :
'मनर्वा किमही न बाजे हो कुंथुजिन ।' हे कुंथुनाथजी ! मेरा मन ठिकाने पर नहीं रहता । 'अध्यातम रवि उग्यो मुज घट, मोह-तिमिर हयुं जुगते ।'
ऐसा कहनेवाले रामविजयजीने अनुभवसे ही कहा हैं । निष्काम भक्तिके प्रभावसे ही निजघटमें प्रकाश फैलता हैं ।
भगवान श्रुतज्ञानसे प्रकाश करते हैं, ऐसा नहीं कहते, यहां तो कहते हैं : भगवान स्वयं ही जगतके दीपक हैं । लोगपईवाणं ।
* भगवान कभी हमको नहीं भूलते, हम भगवान को भूल गये हैं । उसे याद करना हैं । भगवान हमें भूल गये हैं, वह भ्रम हैं । इस भ्रम को तोड़ना रहा ।
* उमास्वाति म. आधारपाठ के बिना कभी लिखते ही नहीं। उन्होंने ही 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।' लिखा । उसका आधार होना ही चाहिए । इसका मूल भगवतीके ४६१वें आजके सूत्रमें आप देख सकते हो ।
जीव, जीवास्तिकायको क्या मदद करता हैं ?
आकाश सभीको जगह देता हैं । जीव जीवास्तिकायको अनंत मतिज्ञान-श्रुतज्ञानके पर्याय देता हैं । (दूसरा शतक, अस्तिकाय उद्देशके सभी पाठ यहां जोड़ दें ।) (७६ 000m maa se ao कहे कलापूर्णसूरि - ४)