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लाकडिया - पालिताना संघ, वि.सं. २०५६, भीमासर - कच्छ
२३-९-२०००, शनिवार अश्विन कृष्णा
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'नमो तित्थस्स' कहकर तीर्थंकर स्वयं तीर्थ की महत्ता बताते हैं । तीर्थ बड़ा या तीर्थंकर बड़े ? इसका जवाब इस नमस्कारमें आ जाता हैं । तीर्थंकर के बिना दूसरे जवाब दे भी कौन सकते हैं ? ' मैं तीर्थंकर बना हूं इस तीर्थ के प्रभावसे' नमस्कार कहता हैं ।
ऐसे इनका
'चक्री धर्म तीरथतणो, तीरथफल ततसार रे; तीरथ सेवे ते लहे, आनंदघन अवतार रे ।'
आनंदघनजी
* लोकमें सारभूत तत्त्व आत्मा हैं । आत्मा का सार चारित्र हैं । चारित्र के बिना मुक्ति नहीं हैं । आत्मा का अनुभव वह चारित्र हैं । * व्यवहार-निश्चय दोनों पक्षी के पंख की तरह जुड़े हुए हैं । दोनों जुड़े हुए हो तो ही मुक्ति-मार्गमें उड्डयन हो सकता हैं । निश्चय को हृदयमें रखकर व्यवहार का पालन करना हैं । 'निश्चय दृष्टि हृदये धरीजी, जे पाले व्यवहार; पुण्यवंत ते पामशेजी, भव- समुद्रनो पार ।'
पू. उपा. यशोविजयजी
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कहे कलापूर्णसूरि ४ ३९
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