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निश्चय को प्राप्त करने के लिए ही व्यवहार हैं । निश्चय (ध्येय) तय करके कोई भी प्रवृत्ति हम करते हैं ना ?
अकेले व्यवहार या अकेले निश्चयसे मुक्तिमार्गमें चल नहीं सकते । यह बात एक्सिडेन्ट के बाद मुझे अच्छी तरह समझ में आई । दाहिना पैर तैयार हो, किंतु बायां पैर सज्ज न हो वहां तक चलना कैसे ? दोनों पैर बराबर तैयार हो तो ही बराबर चल सकते हैं, निश्चय-व्यवहार दोनों हो तो ही मुक्तिमार्गमें चल सकते हैं, ऐसा मुझे सही ढंग से समझाने के लिए ही मानो यह घटना आ पड़ी ।
* आनंदघनजी के जमानेमें उनको पहचाननेवाले बहुत ही कम थे । सामान्य लोग समझते थे : आनंदघनजी याने एक घुमक्कड़ साधु । यह तो जानकारों ने ही उनको पहचाना ! किसी भी युगमें तत्त्व - दृष्टाकी यही हालत होगी। जिनके उपर आनंदघनजी, देवचन्द्रजी, यशोविजयजी के साहित्यका असर हैं, वे तो उनको भावसे गुरु मानेंगे हीं ।
दोनों पैर चलते हैं तब कोई अभिमान नहीं करता । मैं बड़ा या तूं छोटा ऐसा कोई भाव वहां नहीं हैं । एक पैर आगे रहता हैं और दूसरा पैर स्वयं पीछे रहकर उसको आगे करता हैं । ऐसे बड़े आचार्य भगवंत (हेमचन्द्रसागरसूरिजी ) बैठे हैं, तो मुझे सब कहना पड़ता हैं ना ?
पूज्य हेमचन्द्रसागरसूरिजी : क्यों मजाक करते हो ? कलसे नहीं आऊं ?
पूज्यश्री : जरुर पधारीये । आप मुंबई बगैरह में धूम मचाते हो । आवाज़ बड़ी हैं । मेरी आवाज तो कहां पहुंचती हैं ? मुनि भाग्येशविजयजी : गला बैठ जाता हैं तब हमारे यहां लोग इकट्ठे होते हैं । आपके दर्शनके लिए लाखों लोग इकट्ठे होते हैं ।
पूज्य श्री : लोग इकट्ठे होते हैं उसमें वे भगवानको देखने आते हैं, मुझे नहीं । यह तो भगवानका प्रभाव हैं ।
ये लोग ज्यादा से ज्यादा धर्म प्राप्त करे, ऐसा मुझे लोभ है जरूर । इससे मैं ज्यादासे ज्यादा नियमों के लिए आग्रह रखता हूं । हम आखिर बनिये हैं न ?
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१८ कहे कलापूर्णसूरि - ४