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पास समय नहीं होता, किंतु उनकी यह टीका चाहे जितनी बार आप पढ़ सकते हो, उसके उपर चिंतन कर सकते हो, ग्रंथ अर्थात् ग्रंथकार का हृदय ही समझ लो ।
यही बात भगवानमें भी लागू पड़ती हैं । भगवानके आगम मिलते साक्षात् भगवान मिल गये, ऐसा लगना चाहिए । प्रेमीका पत्र मिलते हृदय अति प्रसन्न हो जाता है, उस तरह भगवानकी वाणी मिलते भक्तका हृदय आनंदित बन जाता हैं ।
* भगवान तीर्थंकर हैं, उसी तरह तीर्थस्वरूप भी हैं। मार्गदाता हैं, उसी तरह स्वयं भी मार्ग हैं ।
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यु, नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्थाः
- भक्तामर __ 'ताहरूं ज्ञान ते समकित रूप, तेहि ज ज्ञानने, चारित्र तेह छेजी ।'
- पू. उपा. यशोविजयजी तीर्थ के साथ अभेद करना मतलब आगम और चतुर्विध संघ के साथ अभेद करना ।
(१०)लोगुत्तमाणं ।
सिद्ध आदि चार भी लोकोत्तम कहे जाते हैं और भगवान भी लोकोत्तम कहे जाते हैं तो फरक क्या ? इस अपेक्षासे तो भगवान उत्तमोत्तम हैं । (देखो तत्त्वार्थकारिका । वहां उत्तमोत्तम मात्र तीर्थंकरों को ही लिये हैं ।) ठाणंगमें ४ भांगे हैं : जिसमें मात्र परोपकार हो उस भागमें तीर्थंकर आते हैं ।
'लोकोत्तमो निष्प्रतिमस्त्वमेव' भगवान अप्रतिम लोकोत्तम
'सिद्धर्षि सद्धर्ममयस्त्वमेव ।' इस पंक्तिमें सिद्ध, मुनि और धर्म आ ही गये हैं । (सिद्ध + ऋषि + सद्धर्म)
उन तीर्थंकर का आप संग करो, उनके जैसे बनोगे । 'उत्तम संगे रे उत्तमता वधे, साधे आनंद अनंतोजी ।'
लोहे जैसी चीज भी सुवर्ण रसके स्पर्शसे सोना बन जाती
[कहे कलापूर्णसूरि - ४000000000000oomooooo ३३)