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पू. धुरंधरवि. के साथ, पालिताना, वि.सं. २०५६
२२-९-२०००, शुक्रवार
अश्विन कृष्णा - ९
* आगमका ज्ञान बढे त्यों त्यों गुणोंका विकास होता हैं। अज्ञाताद् ज्ञाते सति वस्तुनि अनन्तगुणा श्रद्धा भवति । इसीलिए ही 'अभिनव पद' २० स्थानक में ज्ञानपद से अलग रखा हैं । ज्ञानसारमें ज्ञान के लिए (ज्ञान, शास्त्र, अनुभव) तीन अष्टक हैं ।
ज्ञानसे श्रद्धा अपूर्व बनती हैं उस प्रकार कर्मक्षय भी अपूर्व बनता जाता हैं।
'बहु कोडो वरसे खपे, कर्म अज्ञाने जेह;
ज्ञानी श्वासोच्छ्वासमां, कर्म खपावे तेह ।' परंतु वह भावनाज्ञान होना चाहिए । भावनाज्ञान मात्र शिबिरोंमें जाने से नहीं आता, बरसोंकी साधनाके परिपाक से आता हैं ।
अभी हमारे तीर्थंकर भगवान कैसे हैं, उसका परिचय गणधरोंकी स्तुति के माध्यम से हम कर रहे हैं ।
उस पर हरिभद्रसूरिजीकी ललित-विस्तरा टीका अद्भुत हैं । यह टीका मिलते मैं तो ऐसा मानता हूं कि साक्षात् हरिभद्रसूरिजी मिल गये । दैवयोग से साक्षात् हरिभद्रसूरिजी मिल गये होते तो भी वे इतना नहीं समझाते । अर्थात्, समझाने का उनके (३२ 65 66 6 6 6 6 6 6 6 6 कहे कलापूर्णसूरि - ४)