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यदि शरीर का पुद्गलपन ध्यानमें न रहें, थोड़ा प्रमाद हो जाय तो मोह आक्रमण करते डरता नहीं हैं ।।
बालपनमें कण्ठस्थ की हुई ये कृतियां आज मेरे लिये मूल्यवान् बन गई हैं । जैसे किसी गृहस्थ को सस्ते भाव में खरीदा हुआ सोना आज मूल्यवान् बन जाता हैं ।
* पू. हरिभद्रसूरिजीने यहां हर पदमें अन्य मतका खंडन किया हैं; उसका कारण यह हैं कि : जैनेतरों की ओर से जैनों पर आक्षेप हुए थे । इन आक्षेपों का खंडन जरूरी था । अतः हरिभद्रसूरिजी गृहस्थवाससे ही चौदह विद्या के पारगामी विद्वान थे । इसीलिए इनके सामने उस युग के सभी मत उपस्थित रहे हों । इसी कारण से एकेक पदमें अन्य मतका सहज रूप से खंडन होता रहता है।
आपश्री द्वारा भेजी गई 'कहे कलापूर्णसूरि ३' एवं मन्नारगुडी से पु.नं. २ प्राप्त हुई । हररोज सुबह सामायिकमें इन्हीं पुस्तकों पर वांचन चल रहा हैं । आपका संकलन एवं गुरु भगवंत की वाचना इतनी गजब की हैं कि मानो वे फलोदीमें नहीं, बल्कि बेंगलोरमें हमारे समक्ष बैठकर समझा रहे हैं । सामायिक का समय कब पूरा होता हैं पता नहीं चलता । महोपाध्याय यशोविजयजी म.सा. को विमलनाथ भगवान की प्रतिमा देखकर तृप्ति नहीं होती हैं बल्कि देखने की जिज्ञासा बढती हैं । उसी भांति हमें आपका साहित्य पढकर ऐसे साहित्य ज्यादा से ज्यादा पढने की जिज्ञासा बढती हैं । पू. गुरु भगवंतश्री ज्यादा से ज्यादा ऐसी प्रवचन गंगा की धारा प्रवाहित करते रहे एवं आप उस धारा को हम तक पहुंचाते रहें ।
- अशोक जे. संघवी
बेंगलोर
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