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के साथ क्या लेना-देना हैं हमें ? फिर भगवान हृदय में कैसे आयेंगे ?
* सूत्र-अर्थ तो फिर भी करते हैं, लेकिन तदुभयमें क्यों खामी हैं ? आत्मा के अनंत गुणों में मुख्य आठ गुण हैं । उन गुणों को रोकने के लिए ही ज्ञानावरणीयादि आठ कर्म चिपके हुए हैं। __इनमें भी मुख्य मोहनीय हैं । उसने दो खाते संभाले हैं : दर्शन और चारित्र रोकने के । मोह का जोर हों वहां तक 'तदुभय' नहीं आता ।
तदुभय के लिए खास चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम चाहिए । इसके पहले दर्शन मोहनीय का क्षयोपशम चाहिए ।
* मैं बोलूं उसका कोई महत्त्व नहीं । सामने शास्त्रपंक्ति हों तो ही महत्त्व हैं ।
* तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध किनको होता है ? सिर्फ बाह्यतप-क्रिया से नहीं, ४०० उपवास से नहीं, लेकिन जिसने भगवान के साथ समापत्ति साधी उसको ही बन्ध होता हैं । बाकी बाह्य तपश्चर्या तो अभव्य भी कर सकता हैं ।
* ध्यानकी साधना से प्रज्ञा परिकमित न बनें वहां तक आगम का रहस्यार्थ नहीं मिलता । जैनेतरों में कहा हैं :
आगमेनानुमानेन, योगाभ्यासरसेन च । त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां, लभते तत्त्वमुत्तमम् ॥ आगम, अनुमान और योगाभ्यास का रस - इन तीनों से प्रज्ञा को परिकर्मित करता साधक उत्तम तत्त्वको प्राप्त करता हैं ।
* भगवतीमें गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं वह यों ही नहीं करते । भगवती में लिखा हैं : 'झाणकोट्ठगए' ।
अर्थ-पोरसी में ध्यान कोठे में प्रवेश करने के बाद पूछते थे । ज्यों ज्यों उसका ध्यान धरें, त्यों त्यों नये-नये अर्थों की स्फुरणा होती ही जाती हैं ।
श्रुत-केवलीओंमें भी अर्थ-चिंतन में तरतमता होती हैं, परस्पर छट्ठाणवड़िया होता हैं ।
* जितना चिंतन गहरा, अर्थ उतने ज्यादा स्फुरते हैं ।
* घड़ियाल के सभी स्पेरपार्ट कामके हैं, उसी प्रकार साधु (कहे कलापूर्णसूरि - ४ 60 mmswwwwwwww8)