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शासन में रक्त मुनिओं की, और तेरे शासन (धर्म) की शरण स्वीकारता
हूं ।
त्वां त्वत्फलभूतान्...
वीतराग स्तोत्र
अरिहंत के सेवक भी बनना हो तो उनकी अचिन्त्य शक्ति जाननी ही पड़ती हैं । यह अचिन्त्य शक्ति ही तीर्थ में काम कर रही हैं । भगवान आदिनाथ से मोक्ष में गये, उससे असंख्य गुने उनके तीर्थ के आलंबन से गये हैं ।
भले गुरु उपकार करते लगते हों, परंतु गुरुभी आखिर भगवान के ही न...?
आचार्य श्री रत्नसुंदरसूरिजीको मैंने इसी तरह समझाया था : शिबिरार्थीओं में दूसरे किसीका नहीं, आपका ही हाथ गुरु पू. भुवनभानुसूरिजीनें पकडा, उसका क्या कारण ? यही भगवानकी कृपा कही जाती हैं । वह भले गुरु के माध्यम से आती हो, लेकिन हैं भगवान की ।
तीर्थंकरोने अपनी शक्ति वासक्षेप द्वारा गणधरोंमें स्थापित की । गणधरों की यह शक्ति पाट-परंपरा से आचार्योंमें स्थापित होती आई । यही शक्ति आज भी काम कर रही हैं ।
बहुत श्रावक कहते हैं : आपका उपकार हैं । हमने तो आपको ही देखें हैं । मैं कहता हूं : नहीं भाई ! यह भगवान का उपकार हैं ।
यह भी कहने के लिए नहीं, हृदय से कहना चाहिए । अगर थोड़ा सा ‘मैं' आ जाय तो हम मोह की चालमें फंस जाते हैं । जिन और जिनागम एकरूप ही हैं ।
'जिनवर जिनागम एक रूपे' यह बात पं. वीरविजयजी कहां से लाये ? ‘पुक्खरवरदी' देखो । उसमें सबसे पहले भगवानकी स्तुति की हैं । शिष्य शंका उठाता हैं : यहां तो आगमकी स्तुति चल रही हैं । तो भगवानकी स्तुति किस लिए ? शंका को दूर करते कहा : भगवान और श्रुत दोनों एक ही हैं, इसीलिए । * तुम्हारा ज्ञान तदुभय तक न पहुंचे तो उसके पहले के सातों · (ज्ञानाचार) व्यर्थ हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि ४
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