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* समग्र जीवराशिमें भगवान हैं । समग्र जीवराशिमें हम हैं या नहीं ? अगर हम भगवन्मय हों तो उससे कम क्यों मानें ?
उपयोगात्मा, द्रव्यात्मा और दर्शनात्मा के रूपमें हम सिद्धों के साथ हैं । (भगवतीमें अभी ८ आत्माओं की बात चल रही हैं । उपयोगात्मा आदि तीन इनमें से ही हैं ।)
सिद्ध समान होते हुए भी हम पामर बने हुए हैं । यही बड़ी करुणता हैं ।
* हम पासे फेंकते हैं देह आदि के उपर, लेकिन बंधन होता हैं हमारा स्वयं का ही । हमारा यह पासा नया हैं । केवट जाल फेंकता हैं, परंतु पकड़ाई जाती हैं मछलियां, परंतु यहां पर तो हमारी जालमें हम ही पकड़ा रहे हैं । सिद्धत्व याद रहे तो ऐसी जाल में कभी फंसेंगे नहीं ।
आत्मबोधो नवः पाशो, देहगेहधनादिषु । यः क्षिप्तोऽप्यात्मना तेषु, स्वस्य बंधाय जायते ॥
___ - ज्ञानसार * चतुरशितिजीवयोनिलक्षप्राणनाथाय ।
- शक्रस्तव
भगवान चौराशी लाख जीवयोनि के प्राणनाथ हैं । भगवानने तो हमारे साथ अभेदभाव किया, लेकिन हमने ही भगवान के साथ भेद रखा हैं । भगवान तो हमारे साथ संपर्क रखने के लिए तैयार हैं, हम ही तैयार नहीं हैं। भगवान के साथ संपर्क साधने के लिए ही 'प्रीतलडी बंधाणी रे' वगेरह स्तवन गाता हूं ।
(९) पुरिसवरगंधहत्थीणं ।।
इस पद से गुणक्रम-अभिधान-वादी बृहस्पति के शिष्यों के मत का खंडन हुआ हैं ।
आत्माके अनंतगुणों का कोई क्रम नहीं हैं। जैन दर्शन एकान्त माननेवाला नहीं हैं । इसीलिए गुणों का वर्णन क्रम से भी किया जाता हैं, उत्क्रम से भी किया जाता हैं ।
उसकी दलील यह हैं कि कितनेक गुण छद्मस्थ-अवस्था के हैं । कोइ गुण केवलज्ञान के बाद के हैं । गुण-वर्णन क्रमशः होना चाहिए । (कहे कलापूर्णसूरि - ४00amoooooooooo १५)