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परंतु हमारे यहां पश्चानुपूर्वी से, पूर्वानुपूर्वी से, अनानुपूर्वी से सब तरह वर्णन हो सकता हैं । उदाहरण के तौर पर मुख्यता की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के लक्षणों में शम प्रथम हैं । उत्पत्ति की अपेक्षा से आस्तिकता प्रथम हैं । वहां पश्चानुपूर्वी भी स्वीकार की गइ हैं । उसी तरह यहां भी समझें ।।
* गंधहस्ती से दूसरे हाथी भाग जाते हैं, मिट्टी के तेल से चिंटीया भाग जाती हैं, उसी तरह भगवान से सारे उपद्रव भाग जाते हैं । इसीलिए ही भगवान पुरुषों में 'गंधहस्ती' हैं ।
पुण्यपुरुष हो वहां उपद्रव कम होत हैं, उनके सानिध्य से आनंद-मंगल फैलता रहता हैं ।
पू. हेमचन्द्रसागरसूरिजी : जैसे अभी उपद्रव नहीं हैं।
पूज्यश्री : ऐसे नहीं कह सकते । आप सब साथ में ही हो ना...? कहनेवाले तो ऐसे भी कहते हैं कि ये होते हैं वहां वृष्टि नहीं आती ।
दोनों तरफ बोलनेवाले लोग हैं। हमें दोनों में समभाव रखना हैं ।
* अलोकमें किसीको जाना हैं ? बड़ा स्थान मिलेगा । आकाशास्तिकायने तो कह दिया हैं : यहां आप अकेले नहीं रह सकते । दूसरों को स्थान देना ही पड़ेगा । 'मेरे कमरे में मैं दूसरे को आने नहीं दूंगा' ऐसी वृत्ति मेरे पास नहीं चलेगी ।
आकाश की उदारता तो देखो । धर्म-अधर्म पुद्गल, जीव वगेरह को कैसे समाकर अलिप्त भाव से बैठा हैं । इसके पाससे उदारता गुण लेने जैसा नहीं हैं ? छोटी-छोटी तुच्छ बातों को लेकर लड़नेवाले हम इसमें से कोइ बोधपाठ लेंगे ? * सर्वदेवमयाय ।
- शक्रस्तव सर्व देवोमें भगवान व्याप्त हैं । (भले कोइ रामकृष्ण जैसे कालीमाता को मानते हों, लेकिन नमस्कार भगवान को ही पहुंचता हैं । नाम बदलने से क्या हो गया ? भगवान का नाम भी भूल जाओ तो अहँ या ओं भी चलता हैं ।)
सर्वज्ञानमयाय - जगत का सर्वज्ञान भगवान का ही हैं । हम ज्ञान पढ़ते हों तब भगवन्मय ही होते हैं । (१६wwwwwwwwwwwwwwww® कहे कलापूर्णसूरि - ४)