________________
भुज, वि.सं. २०४३
mogenenews
RAN
२०-९-२०००, बुधवार
अश्विन कृष्णा - ७
* भगवान के तीर्थमें द्रव्य से भी पुण्य के बिना नंबर नहीं लगता । भगवान हमारे हैं, ऐसा भाव तीर्थ के आलंबन से उत्पन्न हो सकता हैं । शरीर- इन्द्रियादि मेरे है - ऐसा मानकर जीवन पूरा करनेवाले जीव को 'भगवान मेरे हैं' ऐसा कभी लगा नहीं हैं । अनेक भवों का यह अभ्यास दूर होना आसान नहीं हैं । विकथाएं बहुत सुनने मिलती हैं, भगवान की बातें जगतमें कहीं सुनने को नहीं मिलती। भगवान मेरे है, अच्छे हैं - ऐसी दुर्लभ बातें इस ललित विस्तरामें से ही आपको जानने मिलेंगी ।
नमुत्थुणं तो बालपन से जनते हैं, लेकिन उसमें ऐसी दुर्लभ बातें हैं, वह तो इस ललित विस्तरा से ही जान सकते हैं ।
भाव तीर्थंकर भले नहीं हैं, लेकिन भाव तीर्थंकर को पैदा करनेवाले संयोग हाजिर हैं । व्यक्ति भले हाजिर न हो, परंतु उसका नाम चारों तरफ गूंजता हों, उसकी तस्वीरें (स्थापना) सब जगह दिखाई देती हों, उसको देखनेवाले लोग विद्यमान हों, वह भी उसकी महानता बताने के लिए काफी हैं ।
शरीर मेरा हैं, घर मेरा हैं, ऐसा बहुतबार लगा, परंतु भगवान
१८ ooooooooooooooo