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मेरे हैं, ऐसा कभी लगा ? भगवान मेरे हैं ऐसा भाव जगने से भगवान कभी दूर नहीं लगेंगे । 'नाम ग्रहंतां आवी मिले, मन भीतर भगवान'
- उपा. मानविजयजी 'मैं शायद भूल भी जाऊं । परंतु भगवन् ! आप तो मुझे याद कराना था' ऐसे भक्त ही भगवानको बोल सकता हैं ।
भगवान अपने नाम-मूर्ति-आगम-संघ आदि के साथ जुड़े हुए हैं । इसमें से किसी भी माध्यम से आप भगवान को पकड़ सकते हों।
* हम भाव भगवानकी बातें करते हैं । परंतु भाव भगवान को कौन देख सकता हैं ? साक्षात् भगवान भी सामने बैठे हो तो भी उनका आत्मद्रव्य थोड़ी दिखनेवाला हैं ? शरीर ही दिखता हैं । भाव जिन विद्यमान हो तभी भी उनको कोइ हृदयमें या घरमें ले नहीं जाते, उस समय भी नाम और स्थापना ही आधारभूत होते हैं । इसीलिए ही पू. देवचन्द्रजी कहते हैं :
'उपकारी दुग भाष्ये भाख्या, भाव वंदकनो ग्रहीए रे...' नाम और स्थापना जिन ही लोगों के लिए उपकारी हैं ।
भाव भी आखिर शब्द से ही पकड़ा जायेगा न...? भावको बतानेवाले और ग्रहण करनेवाले शब्द (नाम) ही हैं, चित्र (स्थापना) ही हैं। इसलिए ही उन दोनों को उपकारी कहे हैं ।।
तो यहां भाव किनका लेना ? वंदक का भाव लेना हैं । आप भगवानमें जुड़े और आपके भावमें भगवान आये, समझें । जिन्होंने भावमें भगवान लाये वे तिर गये, गौतम वगेरह...।
जिन्होंने भावमें भगवान न लाये वे डूब गये, गोशालक - जमालि वगेरह... ।
भावमें भगवान लाने के लिए नाम - मूर्ति - आगममें भगवान हैं, ऐसी बुद्धि पैदा करनी पड़ेगी ।
भगवान को 'सर्वदेवमयाय' कहकर बुद्ध, विष्णु, ब्रह्मा, महेश वगेरह सबके नाम (विशेषण सहित) शक्रस्तवमें हैं । इन सब नामों का अर्थ भगवानमें भी घट सकता हैं । देखिये भक्तामर :
बुद्धस्त्वमेव । भगवन् ! आप ही बुद्ध हो । आप ही शंकर हो । आप
(कहे कलापूर्णसूरि - ४ 0oooooooooooooooom १९)