Book Title: Jivajivabhigama Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवाभिगम सूत्र
की अपेक्षा से ही त्रस गिना जाता है उनके त्रस नाम कर्म का उदय नहीं है। अतः दोनों प्रकार के कथन में विसंगति नहीं समझनी चाहिये।
२. स्थावर - 'उष्णाघभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः सन्तस्तिष्ठन्ती त्येवंशीला: स्थावराः 'अर्थात् - उष्णादि से तप्त होने पर भी जो उस स्थान को छोड़ने में असमर्थ हैं वहीं स्थित रहते हैं, ऐसे जीव स्थावर कहलाते हैं।
त्रस और स्थावर इन दो भेदों में सभी संसारवर्ती जीवों का समावेश हो जाता है। त्रस जीवों की अपेक्षा स्थावर जीवों में वक्तव्यता अल्प होने से पहले स्थावर जीवों का प्रतिपादन करने के लिये सूत्रकार कहते हैं -
स्थावर के भेद से किं तं थावरा?
थावरा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - १ पुढविकाइया २ आउकाइया ३ वणस्सइकाइया॥१०॥
भावार्थ - स्थावर कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
स्थावर तीन प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. पृथ्वीकायिक २. अप्कायिक और ३. वनस्पतिकायिक।
विवेचन - यहां स्थावर जीवों के तीन भेद बताये गये हैं - १. पृथ्वीकायिक २. अप्कायिक और ३. वनस्पतिकायिक।
१. पृथ्वीकायिक - पृथ्वी ही जिन जीवों का शरीर है वे पृथ्वीकायिक जीव हैं। २. अप्कायिक - जल ही जिन जीवों का शरीर है वे अप्कायिक जीव हैं। ३. वनस्पतिकायिक - वनस्पति ही जिनका शरीर है वे वनस्पतिकायिक जीव हैं।
समस्त भूतों का आधार पृथ्वी है इसलिये सबसे पहले पृथ्वीकायिकों का ग्रहण किया गया है। इसके बाद पृथ्वी प्रतिष्ठित अप्कायिकों का और 'जत्थ जलं तत्थ वणं' - जहाँ जल होता है वहां वन होता है इस सैद्धांतिक कथन के प्रतिपादन के निमित्त वनस्पतिकायिकों का वर्णन किया गया है।
यद्यपि तेजस्कायिक और वायुकायिक भी लब्धि की अपेक्षा स्थावर हैं किन्तु उन्हें गति त्रस माना गया है अतः उनकी यहां विवक्षा नहीं की गयी है। तत्त्वार्थ सूत्र में भी स्थावर के तीन ही भेद कहे हैं - "पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः" (तत्त्वार्थ सूत्र अ० २ सूत्र १३) - पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय स्थावर हैं।
से किं तं पुढविकाइया?
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