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जिन सूत्र भाग: 1
एक कदम न उठाया ।
तो जहां कदम कभी न डाले हों, जिस तरफ कभी आंख न उठाई हो, उस तरफ जाने में मन अगर डरे, भयभीत हो — अपरिचित, अनजान रास्ता, पता नहीं कैसा हो कैसा न हो— स्वाभाविक है। इसलिए तो अध्यात्म की लोग बातें करते हैं, लेकिन जाते नहीं; चर्चा करके समझा लेते हैं, उतरते नहीं ।
चर्चा में कुछ हर्जा नहीं है; मन बहलाव है; मनोरंजन है। सुन लेते, समझ लेते, पढ़ लेते, शास्त्र को पकड़ लेते, मंदिर हो आते, मस्जिद हो आते - भीतर नहीं जाते ।
इसीलिए तो लोगों ने बाहर मंदिर और मस्जिद बनाए हैं कि अगर मंदिर-मस्जिद जाने की भी धुन पकड़ जाए तो बाहर ही जाएं; कहीं ऐसा न हो कि किसी धुन में भीतर की तरफ कदम उठा लें और मुश्किल में पड़ जाएं।
रास्ता अपरिचित है, बीहड़ है । फिर, बाहर के रास्ते पर भीड़ है। तुम अकेले नहीं, और सब साथ हैं। भीतर के रास्ते पर तुम अकेले हो जाओगे, वह भी डर है। वहां कोई साथ न जा सकेगा-न मित्र, न संगी, न साथी, न पति, न पत्नी, न बेटे, न मां, न पिता – कोई साथ न जा सकेगा वहां। वहां तो तुम्हें निपट अकेले जाना होगा। जैसे मौत में तुम अकेले जाओगे, वैसे ही स्वयं में भी अकेले जाना होगा। न कोई दूसरा तुम्हारे लिए मर सकता और न कोई दूसरा तुम्हारे लिए भीतर जा सकता । तो जैसे लोग मौत से डरते हैं, वैसे ही लोग ध्यान से डरते हैं। हां, ध्यान की चर्चा वगैरह करनी हो, कर लेते हैं। इस देश में से जिससे पूछ लो, जिससे - जिससे पूछ लो, ध्यान क्या है— जवाब दे | देगा; प्रार्थना क्या है, पूजा क्या है— प्रवचन दे देगा। ऐसी कोई बात ही नहीं जिसको इस देश में लोग न जानते हों। ब्रह्म की बात उठाओ, हर कोई, राह चलता ब्रह्मज्ञान बघार देगा | आसान है, उसमें कुछ हर्जा नहीं है। लेकिन भीतर जाने की बात मत करो। पांव डगमगाते हैं! घबड़ाहट होती है।
पहली तो घबड़ाहट यह कि रास्ता नया ! दूसरी और गहरी घबड़ाहट यह कि अकेले हैं! अकेले तो कभी कहीं गए नहीं, जब भी गए किसी के साथ गए। कोई यात्रा अकेले न की, तो
केले की आदत ही छूट गई है। इसीलिए तो संन्यासी अकेले अभ्यास के लिए एकांत में चला जाता है। वह सिर्फ बाहर से अकेलेपन का अभ्यास कर रहा है, ताकि धीरे-धीरे भीतर भी
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अकेले होने की हिम्मत आ जाए, कुशलता आ जाए। बाहर एकांत के अभ्यास का इतना ही प्रयोजन है कि थोड़ा अकेले होने की हिम्मत आ जाए। बैठता है अंधेरी गुफा में, कोई नहीं, अकेला, अंधकार घिरता है, रात आ जाती है, जंगली जानवर सब तरफ, अकेला ! धीरे-धीरे रमता है। धीरे-धीरे भूलने लगता है कि दूसरे की जरूरत है। धीरे-धीरे साहस आता, आत्म-विश्वास बढ़ता है कि नहीं, अकेला भी हो सकता हूं। ऐसे बाहर का एकांत फिर भीतर ले जाने में सीढ़ी बन जाता है। बाहर का एकांत अंत नहीं है— साधन है। इसलिए जिसने यह समझ लिया कि गुफा में बैठना आ गया तो अंतरज्ञान हो गया, वह भटक गया। गुफा में बैठे रहो लाखों वर्षों तक, कुछ भी न होगा। गुफा में बैठना तो सिर्फ एक कदम था। ऐसे ही जैसे कोई तैरना चाहता है, तैरना सीखना चाहता है, तो एकदम से गहरे में नहीं जाता; किनारे पर, जहां गहराई नहीं है, गले-गले पानी है, कमर कमर पानी है, वहीं तड़फड़ाता है, वहीं सीखता है। सीख ले एक दफा तो फिर गहरे में जाता है । पर सीखकर भी वहीं तड़फड़ाता रहे किनारे पर ही, तो तैरना सीखा न सीखा बराबर । उस किनारे पर तो बिना ही सीखे खड़े हो जाते; गले-गले पानी था, सुरक्षित थे।
तो जो लोग गुफाओं में बैठकर बंद हो गए हैं और सोचते हैं, पा लिया है, वे भी भ्रांति में हैं।
कुछ संसार में खोए हैं, कुछ संन्यास में खो गए हैं। संन्यास तो केवल साधन है, ताकि तुम्हें थोड़ा भीड़ से बाहर निकाल ले; थोड़ी झलक दे, और इस बात का भरोसा दे कि अकेले में भी मजा है, कि अकेले में और ज्यादा मजा है, कि अकेले की भी धुन है, कि अकेले का भी नशा है, कि मस्ती है, कि ऐसी मस्ती तो कभी न पायी थी जो अकेले में मिली ! थोड़ा गुफा में बैठकर, बाजार से दूर, भीड़ से दूर, अपनों से दूर, संसार की चिंताओं और फिक्रों से दूर, एक बार स्वाद आ जाए कि अरे! बाहर के अकेलेपन में इतना स्वाद है तो कितना न होगा भीतर के अकेलेपन में! फिर तो भीतर की भी पुकार उठने लगी है। निश्चित ही कोई गुफा इतनी अकेली नहीं है जितनी अकेली भीतर की गुफा है। क्योंकि गुफा में भी वृक्ष हिलते हैं बाहर, आवाज होती है, हवा गुजरती है, कोयल गीत गाती है, सिंह दहाड़ता है। कोई है ! आकाश में चांद-तारे हैं! हिमालय की
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