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जैनतत्त्वमीमांसा ये उपचरित कथनके कतिपय उदाहरण है । जैसा कि हम पहले निर्देश कर आये हैं इनका केवल जैन दर्शन और न्यायके ग्रन्थोंमें ही नही, चारों अनुयोगोंके ग्रन्थोंमें भी बहुलतासे कथन किया गया है। जो प्रमुखतासे अध्यात्मका प्रतिपादन करनेवाले ग्रंथ है उनमें भी जहाँ प्रयोजन विशेषवश उपचार कथनकी मुख्यतासे प्रतिपादन करना इष्ट रहा है वहाँ भी यह पद्धति स्वीकार की गई है ( समय० गा० २७, ४६ आदि तथा उनकी आ० ख्या० टी०), इसलिए इस प्रकारके कथनको चारों अनुयोगोंके शास्त्रोंमें स्थान नहीं मिला है यह ता कहा नहीं जा सकता। फिर भी यह कथन उपचरित क्यो है इसकी विशदरूपसे यहाँ मीमांसा करनी है । ६. उक्त उदाहरण उपचरित वचन हैं इसका खुलासा __ यह द्रव्यगत स्वभाव है कि किसी कार्यकी उत्पत्तिमें उपादान मुख्य ( अनुपचरित ) हेतु होता है और अन्य द्रव्यकी विवक्षित पर्याय प्रतिविशिष्ट काल प्रत्यासत्तिवश व्यवहार ( उपचरित ) हेतु होता है । इस तथ्यको दृष्टिपथमें रखकर जिसने अपनी बुद्धिमें यह निर्णय किया है कि जो उपादान स्वरूप वस्तु है। अपने कार्यकालमें वही कर्ता है और वही कर्म है, क्योकि वस्तुपनेकी अपेक्षा वे एक हैं, अतएव उसका वैसा निर्णय करना परमार्थरूप है। कारण कि जीवादि प्रत्येक द्रव्यमें छह कारक शक्तियाँ तादात्म्यरूपसे सदाकाल विद्यमान रहती है, अतः उनके आधार से उस-उसद्रव्यमें कर्तृत्व आदिको अपने ही आश्रयसे सिद्धि होती है । फिर भी विशिष्ट काल प्रत्यासत्तिमूलक बाह्य व्याप्ति वश दो द्रव्योकी विव[क्षित पर्यायोमे व्यवहारसे कर्ता,करण आदिरूपसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध स्वीकार किया गया है। यह देखकर अनादिरूढ़ लोक व्यवहारवश पृथक् सत्ताक दो द्रव्योमें कर्ता-कर्म आदिरूप व्यवहार किया जाता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द समयप्राभृत्तमें कहते है
जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं ।
जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण ॥१०५॥ जीवके निमित्त होने पर बन्धके परिणामको देखकर जीवने कर्म किया । यह उपचारमात्रसे कहा जाता है ॥१०५॥
१. पञ्चा० गा० ८९ और ९६ की टीका । २. स्वयंभूस्त्रोत्र । ३. समयसार कलश ५१ ।