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विषयप्रवेश व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यको व उनके भावोंको व कारण कार्यादिक को किसीको किसीमें मिलाकर निरूपण करता है। सो ऐसे ही श्रद्धानसे मिथ्यात्व है, इसलिए उसका त्याग करना । तथा निश्चयनय उन्हींको यथावत् निरूपण करता है, किसीको किसीमें नहीं मिलाता है। सो ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है, इसलिए उसका श्रद्धान करना।
[अध्याय ७, पृ० २५१ ] जिनमार्गमें कहीं तो निश्चयनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है, उसे तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' ऐसा जानना। तथा कहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे ऐसे हैं नही, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है। ऐसा जानना। इस प्रकार जाननेका नाम ही दोनों नयोंका ग्रहण है। तथा दोनोंके व्याख्यानको समान सत्यार्थ जानकर 'ऐसे भी है, ऐसे भी है' इस प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तनसे तो दोनो नयोंका ग्रहण करना नहीं कहा है।
[अध्याय ७, पृ० २५१ ] उक्त प्रमाणोंके प्रकाशमें यह पण्डितप्रवर टोडरमलजीका वक्तव्य है। इससे स्पष्ट है कि जिन आगममें वचन व्यवहारकी दृष्टि से यथावस्थित वस्तुस्वरूपका निर्णय करनेके लिए दो प्रकारका कथन उपलब्ध होता है। इनकी संक्षेपमें मीमांसा हम पहले ही कर आये है। फिर भी जो मनीषी उपचरित कथनको भी अनुपचरित कथनके समान यथार्थ माननेका आग्रह करते है उनके उस अभिप्रायका निरसन करनेके लिए यहाँ उपचरित कथनके कतिपय उदाहरण उपस्थित कर वे उपचरित क्यों है इसकी अलगसे मीमांसा करेंगे। ५. उपचरित कथनके कतिपय उदाहरण
१. एक द्रव्य अपनी विवक्षित पर्याय द्वारा दूसरे द्रव्यके कार्यका कर्ता है और दूसरे द्रव्यकी वह पर्याय उसका कर्म है ।
२. अन्य द्रव्य अपनेसे भिन्नदूसरे द्रव्यको परिणमाता है या उसमें अतिशय उत्पन्न करता है।
३. अन्य द्रव्यकी विवक्षित पर्याय अन्य द्रव्यकी विवक्षित पर्यायके होनेमें हेतु है, उसके बिना वह कार्य नहीं होता।
४. व्यवहार धर्म और निश्चय धर्ममें साध्य-साधकभाव है अर्थात् व्यवहारधर्मकी आराधना करनेसे निश्चय धर्मकी उत्पत्ति होती है।
५. शरीर मेरा है, तथा देश, धन और पुत्रादि मेरे हैं आदि ।