________________
३२
भिपकर्म-सिद्धि
जाते है । इस प्रकार रोग मे इन तीनो की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है । तीनो की स्वतन्त्र सत्ता है, तीनो अन्योन्य प्रेरित भी है । ये परस्पर अनुस्यूत है, विरोधी नही है अत तोनो की रोगोत्पत्ति मे कारणता मानी जाती है । रोगविशेप के अनुसार इन कारणो मे प्रधानता या अप्रधानता पाई जाती है । इनकी प्रधानता या अप्रधानता के आधार पर चिकित्मा मे भी वैशिष्टच करना होता है ।
उपर्युक्त कथन पूर्ण शास्त्रसम्मत है । तथापि मूल के मूल कारण का विचार किया जावे तो इन त्रिविध कारणो मे बाह्य निमित्त को महत्त्व देना होगा क्योकि सर्वप्रथम वाह्य निमित्त ही रोगोत्पादन मे हेतु वनते है । वे दोप- वैपम्य तथा दोप- दूष्य-सयोग नामक समवायी तथा असमवायिकारण के मूल मे पाये जाते है । अस्तु, वाह्य निमित्तो को ही कारण मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता है क्योकि वे दोप-वैपम्य पैदा करके अथवा आगन्तुक कारण बिना दोप- वैषम्य पहले पैदा किये ही रोग पैदा कर देते है पश्चात् दोप-दुष्टि होती है, फलतः श्रीगणनाथ सेन जी का मत अधिक विज्ञानसम्मत प्रतीत होता है । रोगोत्पादक हेतुओ का वर्णन करते हुए श्री तीसटाचार्य ने चिकित्सा - कलिका मे जो हेतु गिनाये हे वे प्रायः बाह्य निमित्तो के ही सूचक है । फलत वाह्य निमित्तो को रोगोत्पादक हेतु रूप मे मान्यता दी है । जैसे—
व्यायामादपतर्पणात् प्रपतनाद् भंगात् क्षयाज्जागरात् वेगानां च विधारणादतिशुचः शैत्यादतित्रासतः । रूक्षक्षोभकपायतिक्तकटुभिरेभिः प्रकोपं व्रजेत् वायुर्वारिधरागमे परिणते चाह्नेऽपराह्णेऽपि च ॥ कटूवम्लोष्णविदाहितीक्ष्णलवगक्रोधोपवासातप'ःस्त्रीसम्पर्कतिलातसीदधिसुराशुक्तारनालादिभिः ।
भुक्ते जीर्यति भोजने च शरदि ग्रीष्मे सति प्राणिना मध्याह्न च तथार्धरात्रिसमये पित्त प्रकोपं वजेत् ॥ गुरुमधुररसाति स्निग्धदुग्वेक्षुभक्ष्यद्रवदधिनिद्रापूपसर्पिः प्रपूरैः । तुहिनपतनकाले श्लेष्मणः सम्प्रकोपः प्रभवति दिवसादौ मुक्तमात्रे वसन्ते ॥