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चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय
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वृद्धदारक रसायन - विधारा के मूल के चूर्ण को शतावरी के स्वरस से सातवार भावित करके सुखाकर रख ले। इस चूर्ण को १ तोले की मात्रा मे घृत के साथ सेवन करे । इस प्रकार एक मास तक निरन्तर इस चूर्ण का सेवन करने से मनुष्य बुद्धिमान्, 'मेधावी, 'स्मृतिमान् हो जाता है तथा झुर्रियो और केशो के पकने से रहित होकर जीवित रहता है । अर्थात् वार्धक्य का अनुभव नही होता है ।
वाराहीकंद रसायन - अति दूध वाले वाराही कंद के मूल को दूध के साथ पीसकर पिये । इस प्रकार अन्नरहित रहकर एक मास तक दूध पर ही रहे । पश्चात् एक मास तक दूध और भात पर रहे। इस प्रयोग से बुढ़ापा दूर होता है । ( वाग्भट )
चित्रक रसायन --- चीता तीन प्रकार का पुष्पभेद से होता है । पीत, श्वेत एवं काले फूलो वाला । इनमें काले फूलवाला सर्वश्रेष्ठ होता है। इनमे से किसी एक प्रकार का चित्रक विधिपूर्वक सेवन करने से रसायन होता है |
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चित्रकमूल को छाया मे सुखाकर चूर्ण बनावे | इस चूर्ण का १-३ माशे की मात्रा मे मधु से मिलाकर, घी मे मिलाकर या दूध मे घोलकर, मट्ठे मे घोलकर या जल मे मिलाकर सयम के साथ एक मास तक सेवन करने से मेधा, बल, कान्ति एव अग्नि का वर्धक होता है । मनुष्य को शतायु बनाता है ।
तिल तैल मिलाकर चित्रक चूर्ण को चाटने से भयानक वायु रोग नष्ट होते है । गोमूत्र के साथ सेवन करने से श्वेत कुष्ठ और त्वक् रोग दूर होते है । मट्ठे के साथ सेवन करने से अर्श नष्ट होते है । प्रयोग की अवधि एक से दो मास ।
हरीतकी रसायन वर्षा ऋतु मे सेंधानमक, शरद् ऋतु में खाड, हेमन्त ऋतु मे सोठ के चूर्ण, शिशिर ऋतु मे पिप्पली चूर्ण, वसन्त ऋतु में शहद तथा ग्रीष्म ऋतु मे गुड के साथ हरीतकी के चूर्ण को रसायन गुण चाहने वाला मनुष्य सेवन किया करे | "
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१ सिन्धूत्थशर्कराशुण्ठी कणामधुगुडे. क्रमात् । वर्षादिण्वभया सेव्या रसायनगुणैषिणा ॥ ग्रीष्मे तुल्यगुडा सुसैन्ववयुता मेघावनद्धाम्बरे सार्धं शर्करया शरद्यमलया शुण्ठ्या तुपारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण सयोजिता
राजन् भुङ्क्ष्व हरीतकीमिव गदा नश्यन्ति ते शत्रवः ॥ ( रा. मार्तण्ड )