Book Title: Bhisshaka Karma Siddhi
Author(s): Ramnath Dwivedi
Publisher: Ramnath Dwivedi

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Page 751
________________ चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवाँ अध्याय ७.१ प्रमेही के शरीर की शद्धि करके शिलाजीत को ४ रत्ती की मात्रा में प्रारंभ कर शहद मे मिला कर सेवन करे । शालसारादि गण की ओषधियो का क्वाथ अनुपान रूप में दे। इस प्रकार प्रतिदिन दो-दो रत्ती की मात्रा बढाते हुए १ माशा प्रात और १ माशा सायं काल मे देता हुआ १ तुला (५ सेर ) तक शिलाजीत का सेवन करावे । यह इसकी वडी से बडी पूर्ण मात्रा है। इसके अनन्तर ओपधि का सेवन बद करा दे । ओषधि सेवन काल मे क्षुधा प्रतीत होने पर जाङ्गल पशुपक्षियो के मासरस के साथ चावल का भात पथ्य रूप में देना चाहिये । इस के सेवन से मनुष्य रोग से मुक्त हो जाता है-कान्ति और बल से युक्त होकर सो वर्ष तक जीता है।" शिलाजीत प्रयोग काल मे अपथ्य-गुरु, विदाही भोजन का सेवन न करे। कुलथी, काकमाची और क्बूतर के मास का सदा के लिए परित्याग करे । शिलाजीत रसायन की प्रशंसा-मर्त्यलोक मे साध्य रूप ऐसा कोई भी रोग नही है जिसको शिलाजीत का सेवन बलपूर्वक न जीत सके । स्वस्थ व्यक्ति मे काल, योग, मात्रा और विधि का अनुसरण करते हुए सेवन करने से अतिशय पोरुप को वढाता है ।२ मेहाधिकारोक्त योग 'शिवागुटिका' भी एक रसायन योग ही है। वह शिलाजतु का ही योग है। गंधक रसायन-शुद्ध किये गधक को गाय के दूध, चातुर्जात, गुडूची, । हरीतकी, विभीतक, आमलकी, भृगराज और अदरक के रसो से पृथक्-पृथक् आठ भावना देकर तैयार करे । मात्रा ४ रत्ती से १ माशा। अनुपान घी और चीनी । इमसे वीर्य एव शरीर पुष्ट होता है, अग्नि जागृत होती है, विविध त्वक् रोग नष्ट होते है और दीर्घायुष्य की प्राप्ति होती है। सुवर्ण रसायन-सुश्रुतचिकित्सा स्थान २८ वे अध्याय मे सुवर्ण के साथ विविध काष्ठोपधियो का पाक करके क्षीर सेवन के विविध योगो का उल्लेख पाया जाता है । इसमे सुवर्ण के भस्म की आवश्यकता नही पडती है । मस्कार मात्र के लिये सुवर्ण छोड़ा जाता है । इन रसायनो के सेवन से मेधा एव आयुष्य की वृद्धि होती है। पूरे अन्याय का नाम ही मेधायुष्कामीयम् है। यहां पर एक योग अष्टाङ्ग हृदय का तत्सहश उद्धृत किया जा रहा है । सरल एवं उत्तम है। १ कुर्यादेव तुला यावदुपयुजीत मानव । ( भै० २०) २. न सोऽस्ति रोगो भुवि साध्यरूप शिलाह्वय यं न जयेत् प्रसह्य । तत्कालयोगविधिभि प्रयुक्त स्वस्थस्य चोर्जा विपुला दधाति । (च० चि० १)

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