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चतुर्थ खण्ड : तैतालीसवॉ अध्याय ६९७ २ समान प्रमाण मे आमलकी, हरीतकी और विभीतक के फलों का चूर्ण बना ले। पानी से पीस कर उसको नये लौह के पात्र ( कडाही) मे लेप कर रख दे। चौबीस घटे के पश्चात् उसमे पानी छोडकर घोले और छान कर मधु मिलाकर पिये। इस प्रयोग काल मे उस व्यक्ति को प्रचुर मात्रा मे स्नेह (घृत, वसा, मजग आदि) देना चाहिए।
३. त्रिफला के वने चूर्ण का मुलेठी, वशलोचन, पिप्पली, मिश्री, मधु या घी के माथ सेवन भी रसायन गुण वाला होता है।
पिप्पलो रसायन तथा वधमान पिप्पली रसायन-इस रसायन का उल्लेख उदर रोग की चिकित्सा मे विस्तार के साथ हो चुका है।
शतावरी घृत-शतावरी के कल्क और क्वाथ से सिद्ध घृत का सेवन । मात्रा १ तोला । अनुपान शर्करा । व्यक्ति निर्व्याधि एव निर्जर हो जाता है। अवधि १-३ मास ।
वचा रसायन-मोठी बच के चूर्ण का दूध, तैल या घृत के साथ सेवन । मात्रा १-२ माशे । अवधि-१ मास तक । गुण-मनुष्य मेधावी, मधुरभाषी और भूतादि के उपसर्ग से सुरक्षित रहते हुए जीता है।
आमलकी स्वरस-आमलकी का स्वरस ६ माशा से १ तोला, मध ६ माशा, शर्करा ६ माशा और घृत १ तोला मिलाकर प्रतिदिन सेवन करने से और हिताहार-विहार पर सयमपूर्वक रहने से बुढापे से उत्पन्न सभी विकार दूर हो जाते है, जैसे विशाल ग्रन्थ ठीक प्रकार से न पढने से नष्ट हो जाते है ।
सोमराजी रसायन-सोमराजी ( वाकुचो) तथा काली तिल का सेवन । कुष्ठ रोगाधिकार में वर्णन हो चुका है। तुवरक रसायन का भी वर्णन उसी अधिकार मे हो चुका है।
रसोन रसायन-आमलकी, हरीतकी तथा लहसुन ये तीनो द्रव्य स्वतन्त्रतया पचरस युक्त होते है । आमलकी एवं हरीतकी, मधुरामलकटुतिक्तकपायरसयुक्त तथा लहसुन 'मधुरलवणकटुतिक्तकपाय' रस युक्त होता है । १. शतावरीकल्ककपायसिद्ध ये सपिरश्नन्ति सिताद्वितीयम् ।
ताजीविताध्वानमभिप्रपन्नान्न विप्रलुम्पन्ति विकारचौरा.॥ (अ.ह उ ३९) २ मासं वचामप्युपसेवमानाः क्षीरेण तैलेन घृतेन वापि ।
भवन्ति रक्षोभिरधृष्यरूपा मेधाविनो निर्मलमृष्टवाक्या ॥ ३ धात्रीरसक्षौद्रसिताघृतानि हिताशनाना लिहता नराणाम् । प्रणाशमायान्ति जराविकारा ग्रन्था विशाला इव दुर्गृहीता ॥ ,