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द्वितीय अध्याय
तण्डुलीयक-रूक्ष, शीत एवं लघु होने से वात का वर्धक है । इक्षु रूक्षता एव शीत गुणो से वात को बढाता है (मध्य ) । सीधु केवल रूक्षता गुण से वात को वटाना है ( होन)। ___कटुरस एवं मद्य मे पित्तवर्धक सभी अश विद्यमान है अत वह पित्त का सर्वाश मे वर्धक है (अति)। हिंगु-कटु तीक्ष्ण एव उष्ण इन तीन गुणो से पित्त का वर्षक होता है (मध्य) । अर्जवायन-उष्णता एवं तीक्ष्णता के गुण से तिल केवल उष्णता के कारण पित्त का वर्धक है ( हीन)।
मधुररस एवं माहिपक्षीर सर्वाश मे कफवर्धक होते है ( अति ) । स्नेह, गुरु एव मृदु होने से खिरनी कफप्रकोपक है ( मध्य ) । कसेरु शीत एव गुरु के कारण एव केवल शीत गुण के कारण क्षीरीवृक्षो के फल कफवर्धक होते है (हीन)।
काल-वय या आयु-अन्तिम भाग वृद्धावस्था मे वात, मध्यायु मे पित्त एवं आदि बाल्यावस्था मे कफ, दिन के अन्त मे वायु, मध्य मे पित्त एवं प्रारम्भ या प्रात काल मे कफ, रात्रि के अन्त मे वात, मध्य मे पित्त एव प्रारम्भ भाग मे वात, भोजन की परिपक्वावस्था मे वात, पच्यमानावस्था मे पित्त एव साने के साथ कफ की वृद्धि, वसन्त, शरद् और वर्षा ऋतुवो मे क्रमश कफ, पित्त एव वायु का कोप तथा ऋतुसन्धियो मे दोपप्रकोप शास्त्र प्रसिद्ध है
ते व्यापिनोऽपि हृन्नाभ्योरधोमध्यो संश्रयाः । वयोऽहोरात्रिभुक्ताना तेऽन्तमध्यादिगाः क्रमात् ।। ऋत्वोरन्त्यादिसप्ताहातुसन्धिरिति स्मृतः।
(वाग्भट) संख्याभेद या विधि--'विधिर्नाम द्विविधा व्याधय निजागन्तुभेदेन, विविधास्त्रिदोषभेदेन चतुर्विधा साध्यासाध्यमृदुदारुणभेदेन ।' वाग्भट ने इस विधि का उल्लेख पृथक् नहीं किया है । उन्होने सख्या मे ही विधि का ग्रहण कर लिया है । अस्तु विधि और सख्या मे कोई पार्थक्य नहीं है । शास्त्र मे व्यवहार भी पर्याय नाम से इन दोनो का हुआ है। परन्तु वाप्यचन्द्र जी का कथन है कि नहीं इनमे भेद है 'विधिसख्ययोश्चाय भेद ।' विवि का अर्थ प्रकारभेद या उपभेद है और सख्या का बडे वर्गो या भेदो मे व्यवहार पाया जाता है-जैसे दोषभेद से रक्तपित्त का वातिक; पैत्तिक, श्लैष्मिक, ससर्गज एव त्रिदोप भेद-भेद के वर्गों मे आता है और' विविध रक्तपित्तम् तिर्यगूधिोभेदात्, 'यह अवान्तर भेद विधि के वर्ग मे। सख्याभेद सीमित, निश्चित एव शास्त्र से निर्धारित रहती है।