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चतुर्थ खण्ड : बारहवाँ अध्याय ३४७ मर्वप्रथम यह रोग राजा चद्रमा को हुआ अस्तु राजयक्ष्मा, राजरोग या रोग राज भी कहलाता है।
राज-यक्ष्मा रोग के चतुर्विध हेतु-वेगावरोध (मल-मूत्र-प्रभृतिवेगो का रोकना), क्षय ( शुक्र प्रभृति धातुओ का क्षय), साहस (अयथावल आरम्भ) और विपमाशन (विषम भोजन ) इन चार कारणो से त्रिदोषज राजयक्ष्मा रोग उत्पन्न होता है। इसमे वेगावरोधादि कारणो से सर्वप्रथम वायु का कोप होता है पश्चात् अग्नि की दुष्टि होने से कफ और पित्त भी दूषित होता है। इन मूलभूत चार हेतुओ मे अगभूत असंख्य कारणो का समावेश समझना चाहिये ।२
राजयक्ष्मा के त्रिविध रूप या अवस्थाये-कधे और पार्श्व मे पीडा, हाथ-पैरो मे जलन और सम्पूर्ण शरीर मे ज्वर । इसको त्रि-रूप राजयक्ष्मा कहते है । रोग के प्रारभिक अवस्था मे ये ही लक्षण पाये जाते है । जब रोग अधिक बढता है तो द्वितीयावस्था मे पप यक्ष्मा पाया जाता है जिसमे भोजन मे अरुचि, स्वरभेद, कास, श्वास, रक्तष्ठीवन और ज्वर रहने लगता है-'कासो ज्वर पार्श्वभूल स्वरव!ग्रहोऽरुचि ।' इस से वढी हुई अवस्था एकादश रूप राजयक्ष्मा की होती है जिसमे वात के कारण स्वरभेद, कधे तथा पार्श्व मे शूल और मंकोच, पित्त के कारण ज्वर, दाह, रक्तष्ठोवन तथा कफ के कारण सिर मे भारीपन, भोजन मे अरुचि, कास तथा कठ मे पीड़ा ( या उत्कासिका या धसका) इन लक्षणो की उपस्थिति रोगी में पाई जाती है। 3 भोज ने लिखा है कि राजयक्ष्मा में 'कासो ज्वरो रक्तपित्त त्रिरूपं राजयक्ष्मणि' अर्थात् यक्ष्मा मे प्रधान तीन ही लक्षण मिलते हैं कास, ज्वर और रक्तपित्त ।
साध्यासाध्यता-यदि रोगी मे वलक्षय, मासक्षय और मदाग्नि न हो तो साध्य अन्यथा रोग कृच्छ्र साध्य या असाध्य हो जाता है। सम्पूर्ण, अर्ध या
१. संशोपणाद्रसादीना शोष इत्यभिधीयते । क्रियाक्षयकरत्वाच्च क्षय इत्युच्यते बुधै । राज्ञश्चन्द्रमसो यस्मादभूदेप किलामय । तस्मात्त राजयक्ष्मेति केदिदाहुमनीपिण. । ( सुश्रुत ३४)
२ वेगरोधात् क्षयाच्चैव साहसाद् विपमाशनात् । त्रिदोपो जायते यक्ष्मा गदो हेतुचतुष्टयात् ॥ (मा नि.)
३. अंसपाभितापश्च सताप करपादयो । ज्वर सर्वाङ्गगश्चेति लक्षणं राजयक्ष्मण. ॥ स्वरभेदोऽनिलाच्छल सकोचश्चासपार्श्वयो । ज्वरो दाहोऽति सारश्च पित्ताद्रक्तस्य चागम ॥ शिरस परिपूर्णत्वमभक्तच्छन्द एव च। कास. कठस्य चोद्ध्वसो विज्ञेय कफकोपत. ।