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चतुर्थ खण्ड : पचीसवाँ अध्याय
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है ) उसको रात भर दही के मट्ठे मे भिगो कर रख दे। इससे लहसुन की दुर्गंध चली जाती है । सुबह में छाछ से निकाल कर धोकर उसको खरल मे महीन पीसे । इस पिसे हुए लहसुन का ६ तोला और उसमें घृतभर्जित होग, जोरा सफेद, जीरा स्याह, अजवायन, सेंधा नमक, काला नमक, सोठ, काली मिर्च गोर छोटी पिप्पली का चूर्ण प्रत्येक १ माशे मिलावे और थोडा तिल का तेल मिलाकर एकत्र घोटकर शीशी में भर लेवे ।
उपयोग - अग्निवल एवं रोगो का वल, ऋतु तथा दृष्यादि का बल देख कर १ से २ तोला तक देकर ऊपर से एरण्डमूल का क्वाथ पिलावे । एकाग घात, अदित, अपतत्रक, अपस्मार, वातज उन्माद, गृध्रसी तथा विविध प्रकार की वातिक वेदनावो का शामक होता है ।
त्रयोदशाङ्ग गुग्गुलु -वव्यूल की छाल या गोद, असगंध, हाऊवेर गिलोय का तत्त्व या गिलोय, शतावर कद, गोखरू, विधारे का शुद्ध बीज, रास्ना, सौफ, कपूर, अजवायन और सोठ बराबर वरावर लेकर महोन कूट पीस कर कपडे से छान लेवे। इस चूर्ण को खरल में डालकर चूर्ण के बरावर शुद्ध गुग्गुलु और गुग्गुलु का आधा गोघृत मिलाकर अच्छी तरह से घोटकर २ माशे की गोलियां बना ले और सुखाकर शीशी में भर ले । इस त्रयोदशाङ्ग गुग्गुलु का २, गोली दिन मे तोन चार सुरा, यूप, मद्य, मंदोष्ण जल, दुग्ध या मांसरस इनमें से किसी एक के अनुपान से प्रतिदिन सेवन करें। बहुत प्रकार के स्तंभ, शूल तथा घातजन्य वात रोगो में लाभप्रद होता है ।
रसायन योगराज गुग्गुलु सोठ, पीपरा मूल, पीपल, चव्य, चीता का मूल, भुनी हीग, अजगोदा, सरसो, स्याह जीरा, सफेद जीरा, रेणुका, इन्द्रजी, पाठा, वायविडङ्ग, गजपीपल, कुटकी, अतीस, भारती, वच, मूर्वा, इन बीस औषधियो का चूर्ण ३-३ माशे मिलित ५ तोले । त्रिफला का चूर्ण दुगुना १० तोले, सबोके बराबर ( १५ तोले ) गुग्गुलु लेवे । बग भस्म, चांदी भस्म, सीसा भस्म, फौलाद भस्म ( लौह भस्म ), अभ्र भस्म, मण्डूर भस्म और रससिन्दूर प्रत्येक ४-४ तोले ले । घी डाल कर पहले गुग्गुलु को कूट ले फिर उसमे अन्यान्य चूर्ण तथा भस्मादि को देकर खूब कूटे । जब एक दिल होकर गोली बाँधने लायक हो जाय तो १ - १ माशे की गोली बना ले |
मात्रा तथा उपयोग -१-१ गोली दिन मे दो बार महारास्नादि कषाय से सम्पूर्ण वात रोगो मे तथा अनुपानभेद से विविध रोगो मे लाभप्रद होता है । मंजिष्ठादि कपाय के साथ मेदो रोग और कुष्ट मे तथा निम्ब और निर्गुण्डी के क्वाथ से व्रण मे मी लाभप्रद रहता है ।